पञ्चतत्त्व चालीसा
|| मंगलाचरण
प्रकाश ||१||
||श्री-राग||१|
||मनमोहन-छन्द||१|| मंगलाचरन
गीत रतन| गावउ सब मिल सहित जतन|| ||विश्राम|| ||दोहरा-छन्द ||२|| || श्रील गुरुदेव-प्रणति ||१|| प्रथमहि सिमरहु गुरु चरण पुनि पुनि हैं परनाम| जिन
के सिमरन होय ते मिटहिं सबहि जग त्राम||१| शिक्षा गुरु सिमरन करूं हरि स्वरूप तिनि जान| गौर
कथा को तुम धनी हम कंगाल समान||२| श्रीब्रह्म मध्व चैतन्य सम्प्रदाय को धार| जो
गुरु हैं अरु होयगें तिनि परनाम हमार||३| पंगु गिरि लंघ जाय हैं मूक बनैं वाचाल| मूरख
कवि बनि जाय हैं जिस के गुरु प्रतिपाल||४|| || वैष्णव-प्रणति ||२|| दण्डउ वैष्णव पद कमल जाकउ सिमरन नीक| दरसन ते
अघ को हरें तिनि रज माथे टीक||१| || षडगोस्वामी-प्रणति ||३|| रूप
सनातन जीव पद दास भट्ट रघुनाथ| श्रीगोपालहि
सिमर के सबहि निवावहुं माथ||१| यवन त्रासहिं लुप्त भयो सब लीला अस्थान| सो इन
सबहिं प्रकट कियो ग्रन्थ रसामृत गान||२| || इष्ट-प्रणति ||४|| श्रीनिताइ अरु जाह्नवा जिन पद मेरो साध| भव
तरिहैं जिन मिलि गयो पावहिं प्रेम अगाध||१| || पंचतत्त्व-प्रणति ||५|| दण्डवउ पञ्चतत्त्व को पाँचहु मेघ समान| कीर्तन
रस वर्षण करें सब पे कृपा निधान||१| भक्तहिं रूप स्वरूप तिनि और भक्त अवतार| भक्त
स्वयं तिनि की शक्ति पंचतत्त्व को सार||२| || श्रीतुलसी-प्रणति ||६|| धरयो जिन के नाम पे हरि निज धामहि नाम| सो
तुलसी पद कमल में बारम्बार प्रनाम||१| || श्रीराधाकृष्ण-प्रणति ||७|| दण्डउ राधा-कृष्ण जू सांचो साहिब ऐक| रतन वेदि
पे साजि के लीला करैं अनेक||१| || श्रीसखी-प्रणति ||८|| दण्डउ सखियन जूथ को मंजरियन पद द्वन्द| पद रज
कन जिस सिर परै पावहिं रस मकरन्द||१| || श्रीनाम-प्रणति ||९|| प्रणमहु नामहिं आपको कलि में हरि अवतार| जो हरि
सो ही आप हैं करैं जगत निस्तार ||१|
|| राग-शिवरंजिनी ||२|
|| पञ्चतत्त्व नाम कीर्तन ||१०|| श्रीचैतन्य नित्यानन्द श्रीअद्वैत चन्द्र|| गदाधर श्रीवासादि गौर भक्त
वृन्द||१| || निताइ-गौर नाम कीर्तन ||११| निताइ निताइ निताइ निताइ निताइ निताइ निताइ हे| गौर गौर गौर गौर गौर गौर गौर हे||१| || महामंत्र ||१२|| हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे| हरे
राम हरे राम राम राम हरे हरे||१|
|| निवेदन
प्रकाश ||२||
|| राग-दरबारी ||१|
|| मनमोहन-छन्द ||१|| अवगुन
गन जब जान परत | निज परछाईं करउ नसत || ||विश्राम|| || दोहरा-छन्द ||२| वैष्णव
जन की सूचि में हम न परैं हम नीच| जैसे
काग सुहाय ना सब हंसन के बीच||१| छन्द काव्य रचना कठिन मात्रा बरन विधान| सो उर
में आवे नहीं मूरख हम को जान||२| एकल गुन इन छन्द में गौर-निताई नाम| पद-पद के
पग-पग सजे भक्तन को सुखधाम||३| नित्यानंद प्रताप ते हम चालीस बखान| लक्ष कोटि
हम ते अधिक हैं कविभक्त सुजान||४|
|| प्रयोजन
प्रकाश ||३||
|| राग
मालकोंस ||१|
|| मधुभार-छन्द ||१|| गूढ़
इक काज | शबद लै साज | छुपे नट राज | चीन्ह सुसमाज || ||विश्राम|| कृष्ण
अवतार| चीन्ह जग सार| कृष्ण बलराम| सुनैं सब नाम||१| वेद परमान| करैं गुनगान| सुनैं सब लोक| भजैं तज सोक||२| गौर भगवान| कृपा परवान| नाम परचार|छन्न अवतार||३| सबै गुन खान| कोउ नहि जान| चीन्ह नहि लोक| रिदै बर सोक||४| कृष्ण पद दास| करै परकास| सोकहिं निवार| ग्रन्थ प्रकटार||५|
|| निरूपण
प्रकाश ||४||
|| राग
देस ||१|
|| कुण्डलिया-छन्द ||१| ब्रज
अवधी रचना करी टीका सरल बनाय| बृहद
ग्रन्थ नाही कियो सब जन सुखहिं बुझाय||१| सब जन सुखहिं बुझाय गौर जू को आराधें| पंचतत्त्व
को जान प्रेम से सेवें साधें||२| कलि महि जो ना चीन्ह गौर रस को नौ नवधी| तिनि
कारन रच दीन्ह कथा हिंदी ब्रज अवधी||३|
|| राग
देस ||२|
|| दोहरा-छन्द ||२|| द्वादस
छन्द प्रकास हैं ग्रन्थहिं खंड विधान| पंचतत्त्व
परकासिहैं द्वादस सूर्य समान||१| ||विश्राम|| || रोला-छन्द |३|| सूरज
को परकास सबै लोकन हित को है| ऐकस
सब को देत भेद नाहीं किछु को है||१| तैसे ही यह ग्रन्थ सबै सुभ चिन्तन साधे| गौर
प्रेम को देत कटैं माया के बाधे||२|
|| समर्पण
प्रकाश ||५||
|| राग
दरबारी ||१|
|| दोहरा-छन्द ||१| हरि
पद ते गंगा भयो तिस जल पुनि अभिसेक| जो
संतनि मुख हम सुनौ निज मति करयो लेख||१| सोहि ग्रन्थ अरपन करूं वैष्णव कर-कमलार| यही आस
हरिगौर जस फैले सब संसार||२|
|| गौरांग
चालीसा प्रकाश ||६||
|| राग
रागेश्री ||१|
|| रोला-छन्द ||१| परथम
तत्त्व बखान सदा गौरांग कहायें| भक्त रूप भगवान छन्न
अवतार कहायें||१| ||विश्राम|| || चौपाई-छन्द ||२| जय
जय गौर प्रेम अवतारी| जय जय कीर्तन नाम बिहारी||१| जय जय गौरकृष्ण पर-ईश्वर| जय जय रसिकनि को
आधीश्वर||२| जय जय
जय अवतारिन आकर| उन्नतोज्जवल प्रेम प्रदाकर||३| बहु कारन प्रभु प्रकट भयहु हैं| चार बहिर यह
सन्त कहहु हैं||४| प्रथम बाह्य कारन बतलावें| सो सब वैष्णव वेद
सुनावें||५| चार
युगन के भिन्न धरम हैं| सो युग महि सो धरम परम हैं||६| सत तरहीं हरि ध्यान प्रभाऊ| त्रेता बहु बिधि
यज्ञ कराऊ||७| द्वापर मंदिर अर्चन करहीं| कलिहिं नाम कीर्तन
सों तरहीं||८| कलिहिं धर्म संस्थापन करिहैं| कृष्ण गौर सुन्दर
बन परिहैं||९| दूसर प्रभु अद्वैत पुकारे| तीसर निज प्रण सत
करिवारे||१०| चौथा
अब हम कारन कहिहैं| सुन सब सज्जन चित्त लगहि हैं||११| द्वापर सह परिकर प्रभु आवहिं| लीला अन्तरंग
प्रकटावहिं||१२| सो सब ही के चित्त न आवहिं| श्री-बिरिंचि-शिव
पार न पावहिं||१३| सो कारन ब्रजभाव अभावा| सर्व प्रबेस मिलहिं
नहिं पावा||१४|सो हि प्रबेस सुगम करवावहिं| कृष्ण गौरसुन्दर
बनि आवहिं||१५| जो ब्रज प्रेम आच्छादित रहहु| सबै जग तिस सों
वन्या करहु||१६| अन्तरंग कारन तिस तीना| सब वैष्णव ह्रदयन्तर
चीना||१७| सब
अवतार कृष्ण अवतारा| तिस महि प्रेम प्रकास अपारा||१८|तिस महि ब्रज लीला अति न्यारी| तिस पुनि श्रीजू
सखियन प्यारी||१९| प्रथमहु कारन अब हम कहिहौं| बरनन को तिनि किरपा
चहिहौं||२०| श्री
राधा को प्रणय अपारा| तिस को महिमा अपरम्पारा||२१| तिस को चीन्ह हेतु मन माहीं| श्रीहरि गौरदेव
बनि जाहीं||२२| दूसर कारन अब हम बरनौं| तिस बरननि को गहि तिन
सरनौं||२३| श्री
जू जे गुन पान करहि हैं| सो गुन को के रसन परहि हैं||२४| तिन गुनगन उर जानहिं भावे| कृष्ण गौरसुन्दर बनि
आवे||२५| तीसर
श्री गुन पान करहिहैं| तब कैसो अनंद मन लहिहैं||२६| सो अनंद हरि सदा तकहि हैं| कृष्ण रूप नहि पान
सकहि हैं||२७| क्योंकी
प्रेम विषय हरि राये| आश्रय श्री जू अंतरि माये||२८| श्री कउ बरन-भाव-मन लहिहैं| निज परिकर सह पान
करहिहैं||२९| सो रस
हरिजू पान करय हैं| ताते श्याम गौर बनि जय हैं||३०| हरि कलि छन्न रूप अवतरि हैं| तिसते ‘त्रियुग’ भागवत करि हैं||३१| बंग महि नवद्वीप सुधामा| ता महि प्रकट गौर गुन
धामा||३२| सदा
सदा नामहि रस बरजै| ताल मृदंग मेघ सों गरजै||३३| म्लेच्छ यवन चंडाल पतित जो| सब पावैं हरिप्रेम
रतन सो||३४| पुनहि
प्रभु सन्यास को लयहैं| जगन्नाथ पुरि हरि जू अयहैं||३५| कीर्तन करहीं नृत्य निरंतर| कंप-स्वेद-अश्रहु
दृग अंतर||३६| ऐसो
पूर्व प्रेम नहि गोचर| जैसो दइहु गौर किरपा कर||३७| गौर कथा सुनहू हे भाई| पसु-खग-ब्रिच्छ गलित उर
जाई||३८| गौरहि
गीत गौर गुन गाना| गौर गौर गावहु गुन गाना||३९| गौर कथा दै प्रेम अपारी| पुनि पुनि पुनि जइहौं
बलिहारी||४०|
|| राग
दरबारी ||२|
|| मनहरण घनाक्षरी छन्द ||३| ऐसो
कोनो जीव गौर कथा सुनि रोवै नाहीं रोवै न खगान उरै कोनो आसमान है| हाय सखा मेरो हियो बर ही कठोर न ते कथा सुनै गरै नाहीं ऐसो को पाहान है||१| गौरांग चालीसा यह गौर तत्त्व युक्त भई ‘कृष्णदास’ गौर करें ब्रज प्रेम दान है| परम पुरुसारथ ताते
लघु चार अर्थ ऐसो गुरुतम तत्त्व को ये महागान है||२|
|| नित्यानन्द
चालीसा प्रकाश ||७|
|| राग
यमन ||१|
|| रोला-छन्द ||१| दूसर तत्त्व बखान कहायें
नित्यानंदा| भक्त स्वरूपहि जान सदा हैं
परमानंदा||१| ||विश्राम|| || चौपाई-छन्द ||२| जय
बलराम अभिन्न निताई| जय जाह्नवा पतिहिं
प्रभुराई||१| जय जय
सेवक-विग्रह रूपा| सेव्य-गौर को दास अनूपा||२| जय जय नित्य गौर कउ संगी| सेवहिं गौरहु नाना
रंगी||३| गौर-कृष्ण
अवतारिन आकर| आदि पुरुस विस्तार प्रभाकर||४| 'स्वयं-रूप' –असि बेद बखाने| सोहि अभिन्न 'स्वांश' उपजाने||५| प्रथम अभिन्न रूप बलरामहि| सेवक-सेव्य– एक भगवानहि||६| नाम-रूप को भेद द्विरूपा| अन्यथा एक तत्त्व
अनूपा||७| रूप
विखंडित कबहु न ह्वै हैं| सच्चिदानंद– बेद कहै हैं||८| नित्यानंद विविध कर रूपा| प्रकटहिं रूप अनंत
अनूपा||९| धाम
सिंहासन पद कउ चौकी| मुकुट ब्रिच्छ उपकरन अलौकी||१०| सोहि राम निज रूप कु लेवहिं| सोहि राम प्रभु जू
कै सेवहिं||११| सोहि प्रथम चतुर्व्यूह रूपा| करैं विस्तार बहु
बिधि रूपा||१२| पुनि हरि कोटि चतुर्भुज रूपा| सजहिं बैकुंठ
दिव्य अनूपा||१३| द्वितीय चतुर्व्यूह सो लेवहिं| सबहि रूप ते हरि
के सेवहिं||१४| तिनि ते प्रथम पुरुस अवतारा| कारन जलनिधि कीन्ह
पसारा||१५| कोटि
कोटि ब्रह्माण्ड अपारा| सोही रोम छिद्र उपजारा||१६| दूसर ब्रह्म अण्ड के भीतर| गर्भोदक निधि शयन
निरंतर||१७| तिनि
ते प्रथम जीव उपजहिहैं| तिनि हि 'बिरंचि'– बेद असि कहिहैं||१८| तीसर पुरुस सबै घट भीतर| क्षीरोदक निधि शयन
निरंतर||१९| जब जब
हरि जू लैं अवतारा| तब तब सेवक रूप तोहारा||२०| त्रेता राम रूप अवतारा| अनुज भ्रात को रूप
उपारा||२१| द्वापर
प्रकटहि निज भगवाना| सखा-भ्रात को रूप उपाना||२२| कलिजुग प्रथम चरण जब पावहिं| सो ही कृष्ण गौर
बनि आवहिं||२३| कृष्ण अवतार गौर न भाई| एकहु तत्त्व जानिहौं
ताई||२४| श्री
को भावास्वादन हेतू| नामहिं कीर्तन वितरण हेतू||२५| कृष्णहु धरैं गौर अवतारा| बंग महि नवद्वीप
पधारा||२६| तबहीं
राम निताई रूपा| 'एकचक्र' प्रकटहहिं
अनूपा||२७| ताल-मृदंग-झांझ
बजवाना| लीला के उपयोगी नाना||२८| नित्यानंद सबहि कउ साहिब| लीला हेतु रूप लै
आहिब||२९| शक्ति:
शक्तिमतोर अभेदा| कहहिं सुनहिं असि संतन वेदा||३०| तिनि की शक्ति अनंग-मंजरी| रास केलि में रास
सहचरी||३१| तिनि
की कृपा बिनहु हे भाई| राधा-कृष्ण मिलहु के नाई||३२| नामी नाम भेद किछु नाहीं| गौर-निताइ जानिहौं
ताहीं||३३| कृष्ण
नाम अपराध विचारे| गौर-निताइ नाम सब तारे||३४| जद्दपि गौर महा किरपाला| सब को प्रेम देहिं सब
काला||३५| जिनको
गौर कृपा ना मिलिहैं| ताहि निताइ प्रेमरस दिलिहैं||३६| सो साहिब सबहिं ते कृपाला| तारहिं म्लेच्छ यवन
विकराला||३७| नित्यानंद
ऐसहहु साहिब| सेवक-सेव्य रूप धरि आहिब||३८| सेवक रूपे हरि जू सेवहिं| तिनि कहु जीव सेव्य
कर सेवहिं||३९| मम साहिब जी गौर दास हैं| दास रिदै बस यहहि आस
हैं||४०|
|| राग
दरबारी ||२||
|| मनहरण घनाक्षरी छन्द ||१|| जगाइ मधाइ तोपे मटुकि लै
मारि दइ सों को तुमि तारि दियो गौर प्रेम दान है| मो सो
खल कामी काहे भव मांही छाड़ि दइ मो सो तरै गौर जस गावैगो जहान है||१| चालीसा निताइ को ये अति अदभुत भई ‘कृष्णदास’ नित पाठ करें भाग्यवान हैं| महानाम महाबल
महाप्रेम महोज्ज्वल महाकृपा महाकरें महिमा महान हैं||२|
|| अद्वैत
चालीसा प्रकाश ||८||
|| राग
जनसम्मोहिनी ||१|
|| रोला-छन्द ||१| तीसर
तत्त्व बखान सदा अद्वैत कहायें| जान भक्त-अवतार
भक्त सब महिमा गायें||१| ||विश्राम|| || चौपाई-छन्द ||२| जय जय जय अद्वैत महेश्वर| सुत कुबेर नाभा जगदीश्वर||१| जय जय जय हरि-हर अवतारा| सब दस दिसहु सुभक्ति
प्रसारा||२| जय जय
गौर प्रकट कारन को| जय जय कलिजन निस्तारन को||३| जय श्री-सीता पति गोसाईं| तिनि किरपा मिलहैं
हरि साईं||४| तिनि
श्री हरि-शिव भिन्न न जानौं| सो ‘अद्वैत’ नाम जग जानौं||५| निज आचरन भक्ति सिखलावहिं| सो ‘आचार्य’ नाम सब गावहिं||६| कलि को प्रथम चरन जब काला| जग बिसरो हरिनाम
रसाला||७| चतुर्चरन
लच्छन दिसि दिसहू| सब जग को हरिमाया ग्रसहू||८| तब कीन्हो प्रभु प्रन मन माहीं| कृष्णहि प्रकट
करउ जग माहीं||९| हरि लैं गौर कृष्ण अवतारा| श्रीहरिनाम रसहिं
परसारा||१०| प्रभु
तुलसी गंगा जल लैहैं| सालिग्राम सेवाव्रत लैहैं||११| कृष्ण कृष्ण हरि साहिब मोरे| आवउ हरि सनाथ करि
जोरे||१२| सोहि
सबद उच्चार करहि हैं| ब्रह्म अण्ड को भेद परहि हैं||१३| भेद गयो बैकुण्ठ अनंता| कृष्ण सुनहिं गोलोक
सुकंता||१४| तिस
बाणी को साचि करन को| कृष्ण गौर बनि अयहिं धरन को||१५| ‘विश्वरूप’ हरिजू को भ्राता| आचारज संग हरि गुन गाता||१६| निस दिन गौर महाप्रभु अयहैं| भ्राता भोजन हेतु
बुलयहैं||१७| प्रभु
हरि जू को देख परहि हैं| यह बिचार मन माहि करहि हैं||१८| जब हम सोको दरसन करिहैं| मम हिय को अति मोहित
करिहैं||१९| गौरहरि
प्रभु मंद मुस्काने| मन बिचार करिहैं गुन खाने||२०| तोर निमंत्रण धावत अयहौं| सो तुम काहे बूझ न
पयहौं||२१| एकहु
समय गौर हरिराये| सप्त प्रहर भावन प्रकटाये||२२| सब भक्तन को निज अवतारा| दरसन दैहैं बहुत
प्रकारा||२३| सो
आचार्य दिखावन हेतू| कहु रामाइ बुलावन हेतू||२४| सो सुनिहें सुधि दासहिं द्वारा| लुकिहैं जाय
नन्द के द्वारा||२५| तिनि प्रति प्रभु यह बैन उचारा| हरि प्रति
नाहिं करउ प्रकटारा||२६| सो हरि पुनि आदेस करय हैं| नन्दहिं सदन जाय लै
अयहैं||२७| प्रभु
निज भगवत्ता प्रकटावहिं| पार ब्रह्मता निज दिखलावहिं||२८| षड भुज रूप सबै दिखलावहिं| रूप चतुर भुज राम
समावहिं||२९| राम
कृष्ण को रूप दिखावा| विश्वरूप भक्तनि दिखलावा||३०| लक्ष कोटि ऋषि मुनि जन देवा| करिहैं हाथ जोड़
प्रभु सेवा||३१| लक्ष कोटि ब्रह्माण्ड अपारा| हरि नाभिका माहीं
पसारा||३२| निज
प्राकट्य कहहिं सब दीन्हीं| अद्वैतहु मम गोचर कीन्हीं||३३| जब हरि जगन्नाथ पुरि आये| प्रतिहिं बरस दरसनि
को धाये||३४| सीता
ठकुरानी कर रंधन| परसहिं हरि को बहु बिधि ब्यंजन||३५| गौरहरि संग नृत्य करे हैं| कंप स्वेद अश्रु जल
झरे हैं||३६| गौर
प्रेम बस बाह्य न रहिहैं| हंसहिं रोवहिं भूमि परहिहैं||३७| सोही कृपा बिनहु हे भाई| गौरहिं कृपा मिलहु के
नाई||३८| गौरहिं
कृपा बिनहु हे बांधव| सहज ना मिलहिं राधा-माधव||३९| सीता अरु अद्वैत महेश्वर| करहु प्रनाम जान
जगदीश्वर||४०|
|| राग
दरबारी ||२||
|| मनहरण घनाक्षरी छन्द ||१|| याको
प्रेम टेर सुनि गौर कलि माहि आये ऐसो सो सकति धारी कौन जग माये है|| कृष्ण नाम दान दैहैं जीव को गुमान लैहैं ऐसे वैसे जोहों सोहों पापी त्रान
पाये है|१| अद्वैत
चालीसा नीको सो ही सों अद्वैत भई तिनि कृपा ते अद्वैत भाव जाये धाये है| ‘कृष्णदास’ नाम रस बरसे दिसिहु दस कृपा आस दास
लै के लीला जस गाये है||२|
|| गदाधर
चालीसा प्रकाश ||९||
|| राग
कलावती ||१|
|| रोला-छन्द ||१| चौथे
तत्त्व बखान गदाधर नाम कहायें| भक्त-शक्ति
तिनि जान यश सरिता में नहायें||१| ||विश्राम|| || चौपाई-छन्द ||२| जय
गदाधर माधव नन्दनहिं| अभिनन्दन रत्नावती सुतहिं ||१| जय राधिका अभिन्न गदाई| जय अभिन्न शक्तिहि
हरिराई||२| जिन
को भाव अनंत अपारा| आस्वादन को हरि अवतारा||३| सोहि राधिका बनैं गदाधर| गौर दास बन के अति सुन्दर||४| एक बार हरि सजिहैं धामा| संग राधिका सब गुन
धामा||५| श्री
कहिहैं हरि सों मुसकाना| स्वप्न देखिहौं सुन्दर स्थाना||६| ब्रज महि जो किछु साजे जैसे| सो तिस धामहि
देखहिं तैसे||७| देखहिं विप्र एक अति सुन्दर| मो सम भाव तिनहिं
हिय अन्दर||८| जो केवल मम हियहिं रयो जू| तिनि हिय कैसे प्रकट
भयो जू||९| बरन
हमारो रूप तिहारो| मोर मुकुट बंसी ना धारो||१०| रूप मोर के तोर रूप है| मिलित रूप के अन्य रूप
है||११| सो
सुनि हरि मणि चालित कीनो| गौर रूप कै दरसन दीनो||१२| हरि कहिहैं यह रूप हमारा| सब अवतारिन माहीं उदारा||१३| तैं अरु तोर सखिन कै संगा| शिक्षा लैहौं रस कै
रंगा||१४| सो
कलि महि सबहीं निस्तारा| तो हिय लै तो भाव निहारा||१५| श्री जू के उर भाव ग्रहन को| गौर बरन है गौरहिं
तन को||१६| राधा
को सखि ललिता प्यारी| रामानंद राय बनि आरी||१७| तिनि सखि बरु हि प्यारी विशाखा| दामोदर स्वरूप
रचि राखा||१८| रागलेखा
व कलाकेलि जू| शिखि माहिती माधवी अलि जू||१९| परिषद लै के साढ़े तीना| गौरहरि श्रीकथा रस पीना||२०| श्रीराधा सखि और मन्जरी| प्राय सबहि बनि पुरुस
अवतरी||२१| यतिहि
धर्म प्रभु पालन करिहैं| नारि के संग कबहु न परिहैं||२२| तिस घरि गदाधर नाहि आवैं| सुनहु कारन सब चित्त
लावैं||२३| जे
गदाधर तिस सदन रहिहों| प्रभु आस्वादन बिघन परहिहों||२४| हरि सन्यासी बनि पुरि आवहिं| प्रभु खेत्र
सन्यास अपनावहिं||२५| तिनकु गौर नित दरसन करिहैं| निस दिन हरिजस सरवन
करिहैं||२६| तिनसुं
भागवत गौर सुनहिहैं| कृष्ण कथा रस पान करहिहैं||२७| जो बरननि गदाधरहु करिहैं| हरिजू व्यास शुकादि न
परिहैं||२८| शुक
प्रभु जिनको नाम लुकावहिं| भगवत सोहि गदाधर गावहिं||२९| एक समय श्रीगौरहु आये| श्रीगदाधरहिं बचन सुनाये||३०| जो मम प्राननि को धन प्राना| अब तुम प्रति हम
करहि प्रदाना||३१| ऐसो कहि रज को बिलगावहिं| गोपीनाथ तिसहिं
दिखलावहिं||३२| तिनहिं गदाधर सेवहि कैसे| राखहिं नयन पुतलि को
जैसे||३३| एक
दिनै गौरांग कृपाधर| पुरि ते ब्रज को चलहिं दयाधर||३४| गदाधरहि जो व्रत को सेवहिं| तिनि व्रत को तब
मान न देवहिं||३५| पाछे पाछे हरि कै धावैं| हरि तिस व्रत को स्मरन
दिलावैं||३६| प्रभु
कहे ऐसो व्रत जे कोटि| तबही छाड़ि दैहैं बहु कोटि||३७| नयन अगोचर हरि निज कीन्ही| तिनि बियोग अति पीड़ा
दीन्हीं||३८| तिस
एकादस माहहिं काला| निजहिं अगोचर करहिं कृपाला||३९| गौर गदाधर महिमा भारी| तिनि जस पे जइहौं
बलिहारी||४०|
|| राग
दरबारी ||२|
|| मनहरण घनाक्षरी छन्द ||३|| जिनि
कै हिय में ऐसे ऐसे हाव भाव सजैं हरि हू को तिनि भाव बूझ नाहि परे हैं| ऐसो श्रीराधिका न्यारी हरि जू को अति प्यारी गदाधर रूप लै के धरा अवतरे
हैं||१| गदाधर
चालीसा सो अति अद्भुत भई जेई पाठ करे काल त्रास नाहिं परे हैं| ‘कृष्णदास’ तिनि रति प्रेम गति गूढ़ अति मेरो मति
लघु अति बूझ नाहीं परे हैं||२|
|| श्रीवास
चालीसा प्रकाश ||१०||
|| राग
गौती ||१||
|| रोला-छन्द ||१| पंचम
तत्त्व बखान नाम श्रीवास कहायें| शुद्ध-भक्त
तिनि जान भक्त सब वंदन गायें||१| ||विश्राम|| || चौपाई-छन्द ||२| जय
जय श्रीवासहिं प्रभु जय जय| जलधर पंडित नंदन जय जय||१| जय जय जय नारद अवतारा| सुंदर गौर सुभक्ति
प्रसारा||२| जो
नारद वीणा वादन रत| सो श्रीवास प्रभुहि बनि बिचरत||३| प्रभु श्रीवासहिं पण्डित जय जय| हरि धाय मालिनी
को जय जय||४| गौरकृष्ण
जब परगट होवहिं| मालिनी तिनि धाय बनि आवहिं||५| हरि ह्वैं जू जब बालक रूपा| तिनि मालिनी साजहिं
अनूपा||६| पर्वत
मुनि जिनि वेद पुकारहिं| सो श्रीराम भ्रातु बनि आवहिं||७| नित्यानंद बंग जब आवहु| श्रीवासहिं गृह माहि
रहावहु||८| तिनि
कु मालिनी पुत्रहिं मानैं| तिनि अंचल प्रभु मातहिं
जानैं||९| गौर
प्रथम परकास कियो है| तिनि प्रभु के ही सदन भयो है||१०| निशा काल प्रति घर इन्ही को| गौर करैं कीर्तन
हरि ही को||११| तिन्ही घर नारायणी कन्या| गौर करि तिनि प्रेम
सों वन्या||१२| तिनहि जयो वृन्दावन ठाकुर| लिखिहु भागवत
प्रभु-प्रेमान्कुर||१३| एक बार प्रभु भक्तन संगा| करि बहु विधि
संकीर्तन रंगा ||१४| वासहिं पुत्र तबहि तिस काला| छाड़ि दई स्वासन की
माला||१५| नारी
गन जब रोवन लागी| तिनि प्रभु बैन उचारन लागी||१६| गौर प्रभु अभी नृत्य करत हैं| तैं रोदन सों
बिघन परत हैं||१७| सोहि भांति जे रोदन करिहौं| निज प्राणनि जावहिं
दै धरिहों||१८| नृत्य गौर सुन्दर प्रभु करिहैं| की कारन रस थिर
नहि परिहैं||१९| जब चीन्हें प्रभु पुत्र गयो है| क्रंदन सबही ओर
भयो है||२०| गौर
प्रेमबस क्रंद कियो है| तिनि सेवा महिमण्ड कियो है||२१| मो कारन ना करहिं प्रकासा| के बिधि छाड़हु तैं श्रीवासा||२२| गौर जीव को पुनहि बुलावहिं| मृत सरीर महि जीबन
आवहिं||२३| सो
पूछहिं के काज पठायो| तोर नियम पालनहिं पलायो||२४| सब जीवहिं के प्राण नाथ हो| नित सम्बन्ध तुम के
साथ हो||२५| सो
सम्बन्ध जीव बिसरे हैं| जन्म मरण को पुनि पुनि परे हैं||२६| औरन सों सम्बन्ध जयो जू| अन्तकाल को नष्ट भयो
जू||२७| ऐसो
कहि के जीव पठायो| तिस सुनि के उर ममता जायो||२८| हरि कहि तिनि मृदु सुन्दर बानी| निज सुत आपनि
हम कउ जानी||२९| हरि वासहिं को यह वर दीनै| उदर भरै जे ना किछु
कीनै||३०| मम
प्रताप कारन तिन तबहीं| जो चहिहौं सो पावहिं सबहीं||३१| श्रीवासनि आँगन हरि राये| निज अवतारनि लै
प्रकटाये||३२| राम-सिंह-वाराह
रसाला| प्रकटहिं सप्त प्रहर तिनि काला||३३| श्रीवासहिं सेवा के फलसों| तिनि सेवक देखहिं
अचरजसों||३४| सब
सेवक गंगा जल लइहैं| हरि जू को अभिसेक करइ हैं||३५| तिनि सेविका ‘दुखी’ असि
नामा| करिहैं सेवा सुन्दर कामा||३६| कहन लगे हरि सुन्दर बचना| मो सेवक नहु दुख मम
रचना||३७| तिसि
कारन कै गौर दयानिधि| नाम ‘सुखी’ यह दीन्ह कृपानिधि||३८| जब हरि जगन्नाथ पुरि आये| तिनि दरसनु प्रति
बरसहिं आये||३९| प्रभु श्रीवास मालिनी चरना| सो जहाज हैं भव को
तरना||४०|
|| राग
दरबारी ||२|
|| मनहरण घनाक्षरी छन्द ||३|| नारायण
नारायण हरि नाम परायण वीणा वादन गायन गुरु सो महान हैं| पञ्चरात्र भक्तिशास्त्र प्रकट कियो है जिनि सो नारद ही श्रीवास गौर के
परान हैं||१| श्रीवास
चालीसा यह भक्त कथा युक्त भई भक्त गुन गान हरि गान ते महान है| ‘कृष्णदास’ वर चाहे रसना सदा ही गाये भक्त
गुनगान जब निकसे परान हैं||२|
|| उपसंहार
प्रकाश ||११||
|| राग
मालकोंस ||१|
|| भुजंगप्रयात-छन्द ||१| परेशं
करन्तं न जाने परन्तं || ||विश्राम|| अमाया
अकारं| नमस्ते सकारं| अमाया
हि नामं| नमस्ते सुनामं||१| अजन्मा अनादिं| शची के सुतादिं| रहिन्तं उपाधिं | नम: ते उपाधिं||२| अमाया हि धामं| नमस्ते सुधामं| अमाया हि भेशं| नमस्ते सुभेशं||३| नमस्ते अकालं| महाकाल कालं| नमस्ते अकामं| सुसेवं सुकामं||४| सुनामं प्रचारं| कृपा नाहि पारं| सदा निर्विकारं| सुसत्त्वं विकारं||५| अकृष्णं हि कृष्णं| मुकुन्दं हि तृष्णं| महाभाव धारं| कृपालं अपारं||६| गुणागार धारं| गभीरं अपारं| अखण्डं अगारं| अकिन्चन् दतारं||७| सुतत्त्वं वितत्त्वं| अनाधीन तत्त्वं| प्रणामं प्रणामं| प्रणामं प्रणामं||८|
|| राग
देस ||२|
|| दोहरा-छन्द ||१| रूप
न रंग न रेख किछु जिम प्रकाश कहिलान | सो सूरज साकार ते उपजै यह जग जान ||१| विश्राम || रूप न
रंग न रेख किछु निराकार जो ब्रह्म | सो उपजै साकार
ते कृष्ण रूप परब्रह्म ||२| मूल शबद आकार है निराकार है नाय | निर
लागे आकार ते तबहि शबद बन पाय ||३| मूल रूप साकार है निराकार है पक्ष | सदगुरु
ऐसा ज्ञान दे वेद-शास्त्र में दक्ष ||४| निराकार वो है सदा व्यक्ति-भाव को लेत| बहुत
लोग यह कहत हैं मन्दबुद्धि के हेत||५|| मन्दबुद्धि
नहि जानते परम भाव साकार | अव्यय
अविनाशी सदा सर्वोत्तम दातार||६| कृष्ण-रूप हि समग्र है तिसमें सब मिल जाय | सब रूपन को बीज है इसमें संशय नाय ||७| निराकार सब ही कहें पर न जानैं भेद | निराकार
इक पक्ष है गावैं गीता वेद ||८|
|| राग
रागेश्री ||३|
||सिद्धांत-गीत||१|| तत्त्व को पा जाएगा दशमूल
के सिद्धांत से| सब समझ में आएगा दशमूल के सिद्धांत से||१|| ||विश्राम|| ये
प्रथम सिद्धांत है कि वेद ही प्रमाण है| वेद और पुराण
आदि शब्द-ब्रह्म महान हैं||२| ये अनादि-अपौरुषेय सत्य हैं ये सर्वदा| जो
इन्हें नहीं मानता वो नास्तिक हैं सर्वदा ||३| सत्य को है जानना तो जानिये वेदांत से| सब समझ
में आएगा दशमूल के सिद्धांत से||४| दूसरा सिद्धांत है कि कृष्ण ही परमेश हैं| देवों
के आदि हैं वे सर्वेश हैं अखिलेश हैं||५| ब्रह्म के परमात्मा के मूल कारण हैं सदा| कारणों
के मूल कारण सर्वकारण सर्वदा|| वेद के प्रतिपाद्य हैं
साकार हैं चिदाङ्ग से| सब समझ में आएगा दशमूल के
सिद्धांत से||६|| तीसरा सिद्धांत है हरि सर्व-शक्तिमान हैं| चित, तटस्था, बहिरंगा शक्ति के आधान हैं||७| चिज्जीव-जड़ आदि इन तीनों का ही ये कार्य है| अघट-घटन-पटीयसी
से सृष्टि में सब धार्य है||८| घट नहीं सकता है वो घट जाए शक्ति-कान्त से| सब
समझ में आएगा दशमूल के सिद्धांत से||९|| चौथा ये सिद्धांत है कि कृष्ण रस-आगार हैं| रस
स्वयं हैं रस-रसिक हैं रस के पारावार हैं||१०| हैं यही रस-शिरोमणि रस-राज रस के सार हैं| जिन
रसों का पान करते हैं वे पञ्च प्रकार हैं||११| दास्य, सख्य, वात्सल्य
और मधुर, शान्त से| सब समझ
में आएगा दशमूल के सिद्धांत से||१२|| पांचवां सिद्धांत है कि जीव हरि के अंश हैं| तटस्था
शक्ति से प्रकटित चिद्स्फुलिङ्ग चिद्वंश हैं||१३| अंश हैं ये इसलिए अणु-धर्मता के वश्य हैं| चिद्वणु
हैं इसलिए जड़-द्रव्य से नहीं नश्य हैं||१४| कुछ हैं माया-वश अशांत कुछ हैं मुक्त-शान्त से| सब समझ में आएगा दशमूल के सिद्धांत से||१५|| ये छठा सिद्धांत है जो जीव मायाधीन हैं| वे
अनादि-कर्मवश जड़-कर्म में ही प्रवीण हैं||१६| कृष्ण से सम्बन्ध उनको नहीं कदापि स्फुरित हुआ| नाम रस से चित्त उनका नहीं कदापि द्रवित हुआ||१७| फिरते हैं संसार में चिर-काल ही दिग्भ्रांत से| सब समझ में आएगा दशमूल के सिद्धांत से||१८|| सातवां सिद्धांत है कुछ जीव माया-मुक्त हैं| चिज्जगत
में विराजते हरि-प्रेम से वे युक्त हैं||१९| इनमें कुछ हैं नित्य सिद्ध और कुछ कृपा से सिद्ध हैं| कुछ ने की है साधना निज भक्ति से वे सिद्ध हैं||२०| सेवा के सुख से आनंदित रहते हैं बड़े शान्त से| सब
समझ में आएगा दशमूल के सिद्धांत से||२१|| आठवां सिद्धांत है जो जीव बद्ध या मुक्त हैं| वे
विभु होते नहीं अणुधर्म से नित-युक्त हैं||२२| मुक्त होने पर भी वे बस जीव रहते हैं सदा| परब्रह्म
से मिल के वो परब्रह्म नहीं होते कदा||२३| स्वरूपत: वे भिन्न और अभिन्न हैं श्रीकांत से| सब
समझ में आएगा दशमूल के सिद्धांत से||२४|| नौवां यही सिद्धांत है शुद्धभक्ति ही अभिधेय है| वेदों के द्वारा प्रमाणित उच्चतम ये प्रमेय है||२५| अन्य अभिलाषिता-शून्य ज्ञान-कर्म-अनावृतम्| भाव
में अनुकूल है श्रीकृष्ण के अनुशीलनम्||२६| उच्च है ये कर्म-ज्ञान-मिश्र के तुलनांत से| सब
समझ में आएगा दशमूल के सिद्धांत से||२७|| दसवां ये सिद्धांत है हरिप्रेम ही बस ध्येय है|पुरुषार्थ
पञ्चम यही शुद्ध-भक्ति से ही विधेय है||२८| धर्म, अर्थ, काम, मोक्षादि जो भी पुरुषार्थ है| कृष्ण इनके वश नहीं
हैं, प्रेम ही परमार्थ है||२९| ये ही भक्ति का प्रयोजन है श्रीराधाकान्त से| सब
समझ में आएगा दशमूल के सिद्धांत से||३०|| दशमूल सिद्धांत ये गौरांङ्ग ने हमको दिया| श्रीजीव
गोस्वामी ने इसे उजागर कर दिया||३१| जीवन सार्थक कर दिया दशमूल के सिद्धांत से| तत्त्व
को मैं पा गया दशमूल के सिद्धांत से||३२| सब समझ में आ गया दशमूल के सिद्धांत से|| सब
समझ में आ गया दशमूल के सिद्धांत से||३३||
|| राग
रागेश्री ||४|
|| दोहरा-छन्द ||१| जन्म
कर्म सब दिव्य हैं गूढ़ तत्त्व जे जान| अन्त
हरि घर जायेंगे पुनि भव में नहि आन||१| ||विश्राम|| || कुण्डलिया-छन्द ||२| सूरज
जो आराधि हैं पर खण्डैं आकार| ‘कृष्णदास’ सोहि जन को बिरथा यह व्यौपार||१| बिरथा यह व्यौपार जोहि जन हरि आराधैं| पर
उदार-हरिरूप गौर सेवैं नहि साधैं||२| कृष्ण माधुरी रूप ज्यों सूरज अति हि दूरज| गौर
उदार सरूप ज्यों उपजै रश्मि सूरज||३|
|| श्रीराग ||५|
|| कुण्डलिया छंद ||१| जीवन
गया शराब में खाए खूब कबाब| फुर्सत
नहीं शबाब से मर के मिले अजाब ||१| विश्राम || मर
के मिले अजाब दलन यमराज करेगा| सुख
भी यह स्थिर नाहिं ह्रदय ग्लानि से भरेगा||२| ज़रा गौर से सेव गौर-हरि नाम
रसायन | जप ले निताइ-नाम सुधर जाएगा
जीवन ||३|
|| राग
मालकोंस ||६|
|| मनमोहन-छन्द ||१| काज
कठिन पर परम धरम | जो करिहैं सो पाव
परम|१| ||विश्राम|| कथा
भागवत प्रेम सदन| वैष्णव जन को जीवन धन| कृष्ण कथा जो दान करन| सो वैष्णव को सदा नमन||२| कृष्ण कथा सब जीव बुझल| सो प्रचार अरु गान सरल| गौर कथा रस प्रेम तरल| सो प्रचार अति कठिन
प्रबल||३| प्रबल
कठिन जे जानि करन| गौर कथा सब जीव प्रदन| सो उदार सब जीव जगत| ‘गौड़ीय’ जान करहु प्रनत||४|
|| राग
मेघ मल्हार ||७|
|| मनोरम-छन्द ||१| कारे बदरा घननेघं| छाये उमड़ घुमड़ मेघं| लायें जलनिधि भर नीरं| लोक भयो रस रस पीरं||१| बादर गजगं गज गाजं| दामिनि करड़ं कड़ काजं| लोकहु जागं सुन गाजं| कुक्कुर दुष्टं दल भाजं||२| भीजं रीझं सब लोकं| शुष्क थलं सब तज शोकं| धीर समीरं सननानं| शीतलं बहे सब थानं||३| नीर कमल दल भर साजं| नृत्य मयूरं कर काजं| कृष्ण दास यह रस रागं| गाय भाग तिनि के जागं||४|
|| राग
यमन ||८|
|| हरिगीतिका-छन्द ||१| कृष्ण
को भजते हैं सभी पल ‘कृष्ण’ बरनहि गात हैं| संग में अंग उपांग अस्तर पारसद
लै आत हैं||१| नाम को कीर्तन जो करे हैं गौर बरन सुहात हैं| गौर
भजे हैं सो मेधावी बुद्धि युक्त उदात हैं||२| जैसे भोजन ग्रास ते तुष्टि पुष्टि बढ़हि क्षुधा नसै| गौरहरि गुन-नाम जो भजते तिनि स्वरूप सहज रसै||३| कृष्णहिं नाम-धाम प्रेम-रूप रसानंद सिन्धु रहैं| जगत के नहीं व्यापहिं विषयन सोहि उर बिलगै रहैं||४|
|| राग
देस ||९|
|| छप्पय-छन्द ||७| गौरकथा
परकासरूप जो ग्रन्थनि सेवै| जान लहैंगे गौर दास यह आस
करेवै||१| गौर
कथा को जान काज बस गौर भजन है| भजन यही नित नाम ग्रन्थ
का पाठ मनन है||२| ऐसो कहि कर गौर को सार कथा सिर-मौर को| ‘कृष्णदास’ रसखान को शेष करै इस गान को||३|
|| फलश्रुति
प्रकाश ||१२||
|| राग
ललित ||१|
|| सवैय्या-छन्द ||१| सहारी
तुमारी मुरारी करैंगे ||विश्राम|| गवैंगे
गुनैंगे स्मरैंगे सुनैंगे पढ़ैंगे लिखैंगे जपैंहू करैंगे| जतावैं जपावैं बतावैं बुझावैं सबै को सुबानी सुदानै करैंगे||१| होय सकाम करैं यदि सेवन सो हरि जू परवान करैंगे| अन्त सुखन्त भजन्त तरन्तहिं सो जग में उपरन्त रहैंगे||२| जो निरकाम करैं यदि सेवन सो हरि सेव सुकाम वरैंगे| आकर मूल सुधर्म दिवाकर सो जन के उर प्रान बसैंगे||३| सो जन की हरि लाज रखैं नित नाहि कबै जमफास परैंगे| कृष्णहिं दास यही पद गावहि सो हरि प्रेम प्रकास करैंगे||४|