हरिनाम हो रहा है श्रीवास के सदन में |
हरिधाम हो रहा है श्रीवास के सदन में ||
हरिनाम के ये गुंचे सब और खिल रहे हैं |
इन गुंचों की महक में दिल सब के मिल रहे हैं ||
गुलफाम हो रहा है श्रीवास के सदन में ||१|
हरिनाम हो रहा है श्रीवास के सदन में ||
हर रोज़ रात को भक्त इनके सदन पे मिलते |
हरिनाम रस के प्याले पीकर गले हैं मिलते ||
ये जाम हो रहा है श्रीवास के सदन में ||२|
हरिनाम हो रहा है श्रीवास के सदन में |
मृदंग ताल वीणा जब एक साथ बजते |
हरिनाम कीर्तन पे कितने ही राग सजते ||
गुणगान हो रहा है श्रीवास के सदन में ||३|
हरिनाम हो रहा है श्रीवास के सदन में |
नारायणी के सर पे गौरांग हाथ रखते |
श्रीवास के दासों पर पहले कृपा हैं करते ||
वरदान हो रहा है श्रीवास के सदन में ||४|
हरिनाम हो रहा है श्रीवास के सदन में |
प्रभु सब को ही बुलाते और सब अवतार दिखाते |
'हरिनाम ही हरि हैं' - बस यह ही फरमाते |
फरमान हो रहा है श्रीवास के सदन में ||५|
हरिनाम हो रहा है श्रीवास के सदन में |
गंगा जल के मटके सब भक्त भर के लाते |
सब मिल गौरहरि को फिर अभिषेक कराते ||
ये हमाम हो रहा है श्रीवास के सदन में ||६|
हरिनाम हो रहा है श्रीवास के सदन में |
सातों पहर प्रभु ने महा-प्रकाश दिखाया |
भक्तों को कब बचाया - ये सब उन्हें बताया ||
ये तमाम हो रहा है श्रीवास के सदन में ||८|
हरिनाम हो रहा है श्रीवास के सदन में |
भजन २
ज़माने ने मुझको सताया न होता |
तो दर पे निताइ के आया न होता || विश्राम ||
तो दर पे निताइ के आया न होता || विश्राम ||
तुमको हैं मुझसे हज़ारों जहाँ में |
मुझको नहीं तुमसा कोई जहाँ में ||
मुझको नहीं तुमसा कोई जहाँ में ||
अगर तुम न होते पतितों के जीवन |
जीवन को मैंने बिताया न होता || 1
जीवन को मैंने बिताया न होता || 1
जगाइ – मधाइ पे कृपा की न होती |
माफ़ी खता की अगर दी न होती ||
माफ़ी खता की अगर दी न होती ||
नैय्या ये उनकी तूफां में रहती |
साहिल को हरगिज़ पाया न होता || 2
साहिल को हरगिज़ पाया न होता || 2
रुसवाईयों का जो तोहफा न मिलता |
तेरी आस का गुल न जीवन में खिलता ||
तेरी आस का गुल न जीवन में खिलता ||
जीने की हसरत दिल में न होती |
कभी भी किनारे को पाया न होता || 3
कभी भी किनारे को पाया न होता || 3
कविराज जी को रहमत मिली थी |
गौर कथा उनके मुख से खिली थी ||
गौर कथा गर रौशन न होती |
मैं रौशनी में नहाया न होता || 4
शिवानन्द जी को धूली मिली थी |
रघुनाथ जी के मन की कलियाँ खिलीं थी ||
दही – चीवड़े का उत्सव कहो कैसे
होता |
गौर का दर्शन पाया न होता || 5|