|| श्रीराग ||१|
|| मनमोहन-छन्द ||१|
मंगलाचरन गीत रतन|
गावउ सब मिल सहित जतन||१|
||विश्राम||
अनुवाद: यह मंगलाचरण गीतों में रत्नरूप है|
सब मिल कर के यत्नपूर्वक इसका गान करो |१| ||विश्राम||
||
दोहरा-छन्द ||२|
|| श्रील गुरुदेव प्रणति ||१||
प्रथमहि सिमरहु गुरु चरण
पुनि पुनि हैं परनाम|
जिन के सिमरन होय ते
मिटहिं सबहि जग त्राम||१|
शिक्षा गुरु सिमरन करूं
हरि स्वरूप तिनि जान|
गौर कथा को तुम धनी
हम कंगाल समान||२|
श्रीब्रह्म मध्व चैतन्य
सारस्वत को धार|
जो गुरु हैं अरु होयगें
तिनि परनाम हमार||३|
पंगु गिरि लंघ जाय हैं
मूक बनैं वाचाल|
मूरख कवि बनि जाय हैं
जिस के गुरु प्रतिपाल||४|
अनुवाद: मैं सर्वप्रथम अपने मन्त्र दीक्षा गुरु महाराज को स्मरण कर
के उनके चरणों में पुन: पुन: प्रणाम निवेदन करता हूँ जिनका स्मरण होने से संसार के
सभी क्लेशों से छुटकारा मिल जाता है|१| तत्पश्चात मैं अपने सभी शिक्षा गुरुओं को कृष्ण का ही
स्वरूप जान कर के स्मरण करता हूँ| उन सभी के पास गौर कथा रूपी धन है तथा मैं उस धन से रहित
होने के कारण कंगाल के समान हूँ|२| श्रीब्रह्म-मध्व-चैतन्य-विनोद-सारस्वत-गौड़ीय-वैष्णव
सम्प्रदाय धारा के अंतर्गत जो भी गुरुजन अभी तक प्रकट हुए हैं तथा आगे जिनका
प्राकट्य होगा, उन सब को ही हमारा प्रणाम है|३| जिस व्यक्ति के गुरुदेव स्वयं पालन करने वाले हैं,
वह व्यक्ति यदि पंगु (लंगड़ा) भी हो,
तो भी उनके कृपा प्रसाद से महान पर्वतों को पार कर सकता है,
मूक (गूंगा) व्यक्ति भी सुन्दर वाणी बोलने वाला बन सकता है
तथा मूर्ख व्यक्ति भी महान कवि बन सकता है|४|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: जीव का वास्तविक स्वरूप यही है की वह श्रीकृष्ण का सनातन
दास है–
जीवेर स्वरूप हय कृष्णेर नित्य दास (चैतन्य चरितामृत)|
जिनकी वाणी में जीव को उसके स्वरूप-धर्म (कृष्ण-दासत्व) में
प्रतिष्ठित करने की गुरुता (क्षमता) है– वही ‘गुरु’ हैं| आध्यात्मिक जगत में प्रमुखतः चार प्रकार के
गुरु माने जाते हैं– (१) दीक्षा-गुरु– जो वैदिक विधि से शिष्य को वैदिक मंत्र प्रदान करते हैं (२)
शिक्षा-गुरु– जो सत्संग के द्वारा भक्ति का उपदेश प्रदान करते हैं (३)
चैत्य-गुरु– सभी जीवों के ह्रदय में स्थित परमात्मा ही सब को अच्छे-बुरे
का ज्ञान प्रदान करते हैं– वे ही सबके चैत्य-गुरु हैं| (४) पथ-प्रदर्शक गुरु– वे जो हमें यथार्थ गुरु का आश्रय दिलवाते हैं|
सद्गुरुदेव से मंत्रदीक्षा लिए बगैर किसी भी साधक का संसार
से उद्धार नहीं होता|
गुरु कैसे होने चाहियें? चैतन्य चरितामृत में आता है– किब विप्र किब न्यासी शूद्र केने नय|
जेइ कृष्ण तत्त्ववेत्ता सेइ गुरु हय||–
चाहे कोई ब्राह्मण हो, संन्यासी हो, अथवा किसी ने शूद्रों के कुल में ही क्यों जन्म ग्रहण किया
हो–
किन्तु यदि वह व्यक्ति कृष्णतत्त्व के अनुभवी हैं तो वह
मनुष्यमात्र के गुरु हैं|
अपना उद्धार चाहने वाले सभी व्यक्ति चार वैष्णव सम्प्रदायों
में से किसी एक में दीक्षा ले सकते हैं क्योंकि इन्हीं चार सम्प्रदायों में ही
वैदिक ज्ञान तथा भक्ति अपने यथार्थ स्वरूप में प्रवाहित होती है–
(१) ब्रह्म सम्प्रदाय
(२) रूद्र संप्रदाय (३) कुमार संप्रदाय (४) श्रीसंप्रदाय|
इसी लिए गर्ग संहिता (१०/१६/२३-२६) में इस प्रकार का वर्णन
आता है : वामनश्च विधि शेषः सनको विष्णुवाक्यतः| धर्मार्थ हेतवे चैते भविष्यन्ति द्विजः कलौ||
विष्णुस्वामी वामनान्षतथा मध्वस्तु ब्राह्मणः||
रामानुजस्तु शेषांश निम्बादित्य सनकस्य च|
एते कलौ युगे भाव्यः सम्प्रदाय प्रवर्तकः|
संवत्सरे विक्रम चत्वारः क्षिति पावन:||
सम्प्रदाय विहीना ये मंत्रास्ते निष्फल: स्मृत:|
तस्माच्च गमनंह्यSस्ति सम्प्रदाय नरैरपि||– अर्थात– ‘भगवान् वामन, ब्रह्मा जी, अनंत-शेष एवं सनकादी चार कुमार भगवान् विष्णु के आदेश से
कलि युग में ब्राह्मणों के कुल में जन्म लेंगे| विष्णुस्वामी वामन के अंश से, मध्वाचार्य ब्रह्मा जी के अंश से,
रामानुजाचार्य अनंत-शेष के अंश से एवं निम्बादित्य सनक के
अंश से कलियुग में प्रकट हो चार वैष्णव-सम्प्रदायों के प्रवर्तक होंगे|
यह सभी विक्रमी संवत के प्रारम्भ से ही चारों दिशाओं को
पवित्र कर देंगे| कलियुग में जो मनुष्य इन चार वैष्णव-सम्प्रदायों में दीक्षा
से विहीन होते हैं– उनके द्वारा जपे हुए मन्त्र इत्यादि सभी निष्फल होते हैं|
अत: कलियुग में अपना कल्याण चाहने वाले सभी मनुष्यों को
इन्हीं चार सम्प्रदायों में मन्त्र-दीक्षा ग्रहण करनी चाहिए|’
मध्यकाल में बंगाल को गौड़देश कहा जाता था|
चैतन्य महाप्रभु तथा उनके अधिकांश पार्षदों नें गौड़देश में
ही अवतार लिया| इसीलिये चैतन्य महाप्रभु की आराधना करने वालों को सामान्यत:
गौड़ीय वैष्णव कहा जाता है| गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय ब्रह्म सम्प्रदाय के अंतर्गत आता है|
|| वैष्णव प्रणति ||२||
दण्डउ वैष्णव पद कमल
जाकउ सिमरन नीक|
दरसन ते अघ को हरें
तिनि रज माथे टीक||१|
अनुवाद: मैं समस्त वैष्णवों के चरण रूपी कमल में दंडवत प्रणाम करता
हूं जिनका स्मरण अत्यंत शुभ है| वे केवल दर्शन प्रदान करके ही जीव के पापों को हर लेते हैं| ऐसे वैष्णवों की चरण-रज से मैं अपने माथे पर तिलक करता हूँ||१|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: पद्म पुराण में शिवजी देवी पार्वती से कहते हैं– आराधनानां सर्वेषां विष्णोराराधनां परं|
तस्मात् परतरं देवी तदियानां समर्चनं|| अर्थात–
हे देवी! वेदों में वर्णित जितनी भी प्रकार की आराधना पद्धतियाँ हैं–
उनमें से सर्वोत्तम आराधना केवल भगवान् विष्णु की ही आराधना है|
किन्तु भगवान् विष्णु के आराधना से भी उत्तम वैष्णवों की आराधना है|
श्रीमद्भागवतम् (११.१९.२१) में कृष्ण उद्धव जी से कहते हैं– मद्भक्तपूजभ्याधिका– मेरे भक्तों की आराधना मेरी
आराधना से भी बढ़ कर करनी चाहिये|
वैष्णवता के स्तर के अनुसार वैष्णव मुख्यतः तीन प्रकार के
होते हैं: (१) उत्तम अधिकारी– जिनका शुद्ध आत्मिक स्वरूप प्रकट हो चुका है तथा वे दूसरे सभी प्राणियों
को उन के शुद्धस्वरूप में दर्शन करते हैं| इनके दर्शन से ही
सभी के मुख से स्वत: ही कृष्ण नाम स्फुरित होता है| (२)
मध्यम अधिकारी– जो उत्तम अधिकारीयों का संग वपु (देह) अथवा
वाणी से करते हैं, सजातीय-स्निग्ध (जिनका भक्तिभाव व
भजनपद्धति अपनी पद्धति से मिलती है, ऐसे मध्यम-अधिकारी-)
वैष्णवों से मित्रता रखते हैं, कनिष्ठ अधिकारियों पर कृपा
करते हैं, प्रचार आदि कार्य में संलग्न रहते हैं, तथा पाखण्डी, अभक्त, कृष्ण-द्वेषियों
से तथा जिन्हें अपनी भक्ति का अहंकार है– इन सब के प्रति
उदासीन रहते हैं| (३) कनिष्ठ अधिकारी– जो
मंदिर में श्रीमूर्ति आदि के प्रति तो श्रद्धा रखते हैं किन्तु वैष्णवों की महिमा
से अनभिज्ञ होते हैं|
|| षड गोस्वामी प्रणति ||३||
रूप सनातन जीव पद
दास भट्ट रघुनाथ|
श्रीगोपालहि सिमर के
सबहि निवावहुं माथ||१|
यवन त्रासहिं लुप्त भयो
सब लीला अस्थान|
सो इन सबहिं प्रकट कियो
ग्रन्थ रसामृत गान||२|
अनुवाद: मैं– श्री रूप गोस्वामी, श्री सनातन गोस्वामी, श्री जीव गोस्वामी, श्री रघुनाथ भट्ट गोस्वामी,
श्री रघुनाथ दास गोस्वामी तथा श्री गोपाल भट्ट गोस्वामी– वृन्दावन के इन छह गोस्वामियों के चरणों में अपने शीश को झुकाता हूँ|१| मध्यकाल में मथुरा तथा वृन्दावन में यवनों के
आक्रमण के कारण सभी मंदिर तथा लीला स्थान लुप्त हो गए थे, तब
इन्हीं छह गोस्वामियों ने ही उन लुप्त लीला स्थलियों को पुनः प्रकाशित किया और
भक्तिरसामृत-सिन्धु जैसे अनेक वैष्णव ग्रंथों की रचना की|२|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: कृष्ण लीला में जो श्रीमती राधारानी की प्रिय ‘रूप मंजरी’ नाम की सखी
हैं– वे ही अब गौर लीला में श्रील रूप गोस्वामी बन कर आये
हैं| इसी तरह से ‘लवंग मंजरी’ नाम की सखी श्रील सनातन गोस्वामी, ‘विलास मंजरी’
नाम की सखी श्रील जीव गोस्वामी, ‘राग मंजरी’
नाम की सखी श्रील रघुनाथ भट्ट गोस्वामी, ‘गुण
मंजरी’ नाम की सखी श्रील गोपाल भट्ट गोस्वामी तथा ‘रति मंजरी’ नाम की सखी श्रील रघुनाथ दास गोस्वामी बन
कर प्रकट हुए हैं| श्री रूप गोस्वामी षडगोस्वामियों में सबसे
प्रधान हैं| सभी गौड़ीय वैष्णव उन्ही की भजन प्रणाली के
अनुसार भजन करते हैं इसीलिए उन वैष्णवों को
रूपानुग भी कहा जाता है|
|| इष्ट प्रणति ||४||
श्रीनिताइ अरु जाह्नवा
जिन पद मेरो साध|
भव तरिहैं जिन मिलि गयो
पावहिं प्रेम अगाध||१|
अनुवाद: श्रीमान नित्यानंद प्रभु तथा उनकी भार्या श्रीमती जाह्नवा
देवी के चरण कमल ही मेरे लिए एकमात्र साध्य-वस्तु हैं| इन दोनों के चरण कमलों की प्राप्ति जिस भी
जीव को हो जाती है, वह इस भवसागर से तो तरते ही हैं, पर साथ ही साथ अगाध कृष्ण प्रेम को भी प्राप्त कर लेते हैं|१|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: कृष्ण लीला में जो भगवान् कृष्ण के बड़े भ्राता श्रीबलराम
हैं– वही अब गौर लीला में महाकरुणा की मूर्ति
श्रीमान नित्यानंद प्रभु के रूप में प्रकट हुए हैं| वे
महाकरुणा को धारण करने वाले परब्रह्म परमेश्वर, समस्त वैष्णव
गुरुओं के भी आदि-जगद्गुरु (अखंड-गुरुतत्त्व) हैं| श्रीमती
राधारानी की छोटी बहन ‘अनंग मंजरी’ हैं–
वे ही अब गौर लीला में श्रीमान नित्यानंद प्रभु की अर्धांगिनी
श्रीमती जाह्नवा देवी के रूप में प्रकट हुई हैं| वे
गौर-भक्तिरूपी रत्न प्रदान करने वाली तथा संसार के त्रिताप (आध्यात्मिक, आधिदैविक तथा आधिभौतिक) का निवारण करने वाली हैं| इसलिए
श्रील नरहरि चक्रवर्ती अपने ग्रन्थ श्रीभक्तिरत्नाकर में लिखते हैं– नित्यानंद प्रियं प्रेम भक्तिरत्न प्रदायिनीम्| श्रीजाह्नवेश्वरीम्
वन्दे तापत्रय निवारिणीम्||
|| पंचतत्त्व प्रणति ||५||
दण्डवउ पञ्चतत्त्व को
पाँचहु मेघ समान|
कीर्तन रस वर्षण करें
सब पे कृपा निधान||१|
भक्तहिं रूप स्वरूप तिनि
और भक्त अवतार|
भक्त स्वयं तिनि की शक्ति
पंचतत्त्व को सार||२|
अनुवाद: मैं पंचतत्त्व को प्रणाम करता हूँ| यह पञ्च तत्त्व मेघ समूह के समान हैं (जैसे
मेघ वर्षा करते हैं ऐसे ही यह पंचतत्त्व रूपी मेघ) ‘हरिनाम
संकीर्तन’ रस की वर्षा करते हैं तथा कृपा निधान हैं– अर्थात सभी जीवों पर अपार कृपा करते हैं|१| पञ्च तत्त्व में यह पांच तत्त्व सम्मिलित हैं– (१)
भक्त रूप (२) भक्त स्वरूप (३) भक्त अवतार (४) शुद्ध-भक्त (५) भक्त-शक्ति (१०)|२|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: पञ्चतत्त्व: स्वयं श्रीकृष्ण ही गौर लीला में अपने पांच
स्वरूपों में प्रकट हुए हैं– इसीलिए इन पांच स्वरूपों को ‘पञ्चतत्त्व’ कहा जाता है|
पञ्चतत्त्व का स्वरूप: (१) भक्त रूप– स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण ही अपने ही भक्त के रूप में गौरांग महाप्रभु बन कर
प्रकट हुए हैं (२) भक्त स्वरूप– भक्त का
यथार्थ स्वरूप बन करके बलराम जी ही अब नित्यानंद प्रभु के रूप में प्रकट हुए हैं (३)
भक्त अवतार– भगवान् शिव तथा विष्णु ने ही मिलित
रूप में श्रीअद्वैत आचार्य के रूप में अवतार लिया (४) शुद्ध-भक्त–
भगवद्भक्त श्रीनारद ही शुद्धभक्त ‘श्रीवास
प्रभु’ बन कर प्रकट हुए हैं| (५)
भक्त-शक्ति– भगवान् कृष्ण की आह्लादिनी शक्ति स्वरूपा
श्रीमती राधिका ही अब गौरलीला में ‘श्री गदाधर प्रभु’
के रूप में प्रकट हुई हैं|
वस्तुतः पंचतत्त्व कोई परस्पर भिन्न तत्त्व नहीं हैं– केवल विभिन्न रसों के आस्वादन के निमित्त
ही वही एक भगवान् ही पंचतत्त्व के रूप में प्रकट होते हैं| श्रीचैतन्य
चरितामृत (१/७/५) में कहा गया है–
पञ्चतत्त्व–एक वस्तु, नाहीं किछु
भेद| रस आस्वादिते तबु विविध विभेद||
|| श्री तुलसी प्रणति ||६||
धरयो जिन के नाम पे
हरि निज धामहि नाम|
सो तुलसी पद कमल में
बारम्बार प्रनाम||१|
अनुवाद: जिनके नाम पर ही भगवान् कृष्ण ने अपने धाम का नामकरण किया
है, उन तुलसी महारानी के चरण कमल में मैं
बारम्बार प्रणाम करता हूँ|१|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: जो कृष्ण की लीला-शक्ति की मूर्तिमंत स्वरूप हैं तथा गोलोक
धाम में जो राधिका जी की प्रिय सखी ‘वृंदा देवी’ हैं, वे
ही यहाँ नरलोक (पृथ्वी) पर तुलसी महरानी के रूप में प्रकट हुई हैं| उन्हीं वृन्ददेवी के नाम पर ही भगवान् ने अपने धाम का नाम ‘वृन्दावन’ रखा है| श्रीमती
तुलसी देवी की आराधना के बिना भगवान् कृष्ण की कृपा प्राप्त नहीं होती| इसी लिए वैष्णव तुलसी महारानी की जल से सेवा करते हैं, उनकी प्रदक्षिणा करते हैं तथा उनको दंडवत प्रणाम इत्यादि करते हैं|
श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर स्वरचित श्रीवृन्दादेव्याष्टकम् में
कहते हैं–
तवं
कीर्त्यसे सात्वततंत्र विद्भिर्लीलाभिधाना किल कृष्ण शक्तिः|
तवैव
मूर्तिस्तुलसी नृलोके वृन्दे नुमस्ते चरणारविन्दम्||
महापुरुषों ने सात्वततंत्रों के द्वारा आपका कीर्तन किया है| आप कृष्ण की लीलाशक्ति की मूर्तिमंत स्वरूप
हैं| इस नृलोक में आप तुलसी के रूप में प्रकट हुई हैं|
हे वृन्दे! आपके चरणों में मेरा नमस्कार है|
कृष्णलीला में जो राधा जी की प्रिय ‘विनोद मंजरी’ नाम की
सखी हैं– वे ही अब गौर लीला में श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती के
रूप में प्रकट हुई हैं|
|| श्रीराधाकृष्ण प्रणति ||७||
दण्डउ राधा-कृष्ण जू
सांचो साहिब ऐक|
रतन वेदि पे साजि के
लीला करैं अनेक||१|
अनुवाद: मैं श्रीराधाकृष्ण को दंडवत प्रणाम करता हूँ जो सभी जीवों
के एकमात्र स्वामी हैं| वे (वृन्दावन में) रत्नजड़ित वेदी के ऊपर विराजमान हैं तथा अनेक प्रकार की
अद्भुत लीलायें करते हैं|१|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: श्रीराधाकृष्ण ही सभी जीवों के एकमात्र स्वामी हैं| कृष्ण अपने रूप तथा लीला माधुर्य के कारण
सभी के मन को आह्लादित करते हैं, किन्तु श्रीमती राधिका उनको
भी आह्लादित करने वाली उनकी आह्लादिनी-शक्ति हैं| वे दोनों सर्वशक्तिमान
तथा शक्ति के रूप में यद्यपि एक ही तत्त्व हैं, तथापि लीला
विलास के लिए सदैव वृन्दावन धाम में राधा-कृष्ण द्विरूप हो कर अद्भुत लीलाएं करते
हैं| श्रील नरोत्तम दास ठाकुर कहते हैं– कालिन्दीर कुले केलि कादम्बेर वन| रतन वेदीर ऊपर बसब
दु जन||– श्रीराधाकृष्ण वृन्दावन में कालिंदी (यमुना) के तट
पर कदम्ब वृक्षों के वन में एक रत्नों से जड़ित वेदी पर विराजमान हैं| चैतन्य चरितामृत में भी उल्लेख आता है– दीव्यद
वृन्दारण्यं कल्पध्रुमाध: श्रीमद्रत्नागार: सिंहासनस्थौ|
श्रीराधा की प्रिय ‘चम्पक मंजरी’ नाम की सखी ही अब गौर
महाप्रभु के प्रिय पार्षद श्रील नरोत्तम दास ठाकुर बन कर प्रकट हुए हैं|
|| श्री सखी प्रणति ||८||
दण्डउ सखियन जूथ को
मंजरियन पद द्वन्द|
पद रज कन जिस सिर परै
पावहिं रस मकरन्द||१|
अनुवाद: मैं श्रीराधाकृष्ण की समस्त सखियों तथा मंजरियों के दोनों
चरण कमल में दंडवत प्रणाम करता हूँ| इनके चरणों की रज (धूली) का एक कण भी जिस के सिर पर पड़ जाता
है, उसे ब्रजप्रेम-रस रूपी मकरन्द की प्राप्ति होती है|१|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: श्रीकृष्ण के प्रति एकमात्र गोपांगनाओं का प्रेम ही सबसे
उत्कृष्ट तथा सर्वोत्तम है| यहाँ तक की उद्धव महाराज ने भी उनकी चरण रज की कामना की है| उद्धव महाराज भगवान् कृष्ण के प्रिय पार्षद हैं| उनका
कृष्ण के प्रति प्रेम इतना प्रगाढ़ है की वे केवल कृष्ण के उच्छिष्ठ (बचे हुए अन्न)
का ही भोजन करते हैं तथा उनके द्वारा ही प्रयोग में लाये गए वस्त्र-पीताम्बर आदि
का प्रसाद रूप में सेवन करते हैं| वे परछाईं के तरह कृष्ण के
साथ मथुरा में रहते हैं| लेकिन ऐसे महा-सौभाग्यशाली होने पर
भी वे वृन्दावन में गोपियों के प्रेम को देख कर आश्चर्यचकित हो कर कहते हैं–
वन्दे नन्द व्रजस्त्रीणां पाद रेणुं अभीक्ष्णष:| यासां हरि कथोद्गीतं पुनाति भुवनत्रयम्||– अहो! मैं
तो बस नन्दगाँव की इन व्रजवधुओं के चरणों की पादरज की ही कामना करता हूँ जिनके मुख
से उच्चारित गीत (गोपीगीत, युगलगीत, वेणुगीत,
भ्रमरगीत आदि) इस त्रिलोकी को पवित्र कर रहे हैं| (श्रीमद्भागवतम् १०/४७/६३) श्रीकृष्ण के प्रिय सेवक उद्धव जी ही अब गौर
लीला में उनके पार्षद ‘परमानंद पुरी’ के
रूप में प्रकट हुए हैं|
|| श्रीनाम प्रणति ||९||
प्रणमहु नामहिं आपको
कलि में हरि अवतार|
जो हरि सो ही आप हैं
करैं जगत निस्तार||१|
अनुवाद: मैं श्रीनाम भगवान् को प्रणाम करता हूँ जो इस कलियुग में
श्रीभगवान के ही नामाक्षर अवतार स्वरूप हैं| जो भगवान् हरि हैं, वही आप (हरिनाम) हैं
तथा आप समस्त जगत का निस्तार करते हैं|१|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: कलि में उद्धार का एकमात्र उपाय: भगवान् को प्राप्त करने
का सब से सुगम उपाय केवल नाम का कीर्तन ही है| यह सब से सुगम इसलिए है क्योंकि नाम कीर्तन करने के लिए
प्राय: किसी विशेष नियम पालन आदि की आवश्यकता नहीं है– कहीं
भी किसी भी स्थान तथा काल में करने पर नाम कीर्तन सदैव कल्याण ही करता है| कलियुग में नाम संकीर्तन के इलावा जीव के उद्धार का अन्य कोई भी उपाय नहीं
है| बृहन्नार्दीय पुराण में आता है–
हरेर्नाम
हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलं| कलौ नास्त्यैव नास्त्यैव नास्त्यैव गतिरन्यथा||
कलियुग में केवल हरिनाम, हरिनाम और हरिनाम से ही उद्धार हो सकता है| हरिनाम के इलावा कलियुग में उद्धार का अन्य कोई भी उपाय नहीं है! नहीं है!
नहीं है!
कृष्ण तथा कृष्ण नाम अभिन्न हैं: कलियुग में तो स्वयं कृष्ण
ही हरिनाम के रूप में अवतार लेते हैं| केवल हरिनाम से ही सारे जगत का उद्धार संभव है–
कलि काले नाम रूपे कृष्ण अवतार| नाम हइते सर्व जगत निस्तार||– चै॰च॰ १/१७/२२
पद्मपुराण में कहा गया है–
नाम:
चिंतामणि कृष्णश्चैतन्य रस विग्रह:|
पूर्ण
शुद्धो नित्यमुक्तोSभिन्नत्वं नाम नामिनो:||
हरिनाम उस चिंतामणि के समान है जो समस्त कामनाओं को पूर्ण
सकता है| हरिनाम स्वयं रसस्वरूप कृष्ण ही हैं तथा
चिन्मयत्त्व (दिव्यता) के आगार हैं| हरिनाम पूर्ण हैं,
शुद्ध हैं, नित्यमुक्त हैं| नामी (हरि) तथा हरिनाम में कोई अंतर नहीं है| जो
कृष्ण हैं– वही कृष्णनाम है| जो
कृष्णनाम है– वही कृष्ण हैं
भगवन्नाम भी पांच प्रकार का होता है–
(१) गौण नाम– जिन नामों से भगवान् के रूप एवं लीला की
विशेष स्फूर्ति नहीं होती, जैसे– परमेश्वर,
परमात्मा, जगत्पिता, जगन्नियंता,
प्रभु, ईश्वर इत्यादि|
(२) मुख्य नाम– भगवान् विष्णु के सभी नाम मुख्य नाम हैं
क्योंकि इन नामों से उनके दिव्य साकार रूप और किसी विशेष लीला की स्फूर्ति होती है,
जैसे– हरि, विष्णु,
नारायण, नृसिंह, वाराह
इत्यादि| पद्मपुराण में मुख्य नामों के बारे में कहा गया है–
विष्णोरेकैक नामपि सर्व वेदाधिकम् मतम्– अर्थात–
भगवान् विष्णु के मुख्य नामों के कीर्तन से सभी वेदों को पढ़ने का फल
एक साथ मिल जाता है|
(३) मुख्यतर नाम– यह वे नाम हैं जिनके कीर्तन से ह्रदय में और
भी अधिक लीला रस की स्फूर्ति होती है| भगवान् राम के सभी नाम
जैसे– राम, राघव, राघवेन्द्र, कोसलेंद्र इत्यादि नामों की महिमा
विष्णु नामों से भी अधिक है| पद्म पुराण (७२/३३५) में शिवजी
मुख्यतर नाम के बारे में कहते हैं– सहस्त्र नाम तत्तुल्यं
राम नाम वरानने– अर्थात– एक सहस्त्र
(एक हज़ार) विष्णु नामों का कीर्तन करने से जो फल मिलता है वह एक बार ‘राम’ नाम कहने से ही मिल जाता है|
(४) मुख्यतम नाम– जिस नाम को लेने से सभी भगवद्रसों की एक
साथ स्फूर्ति उत्पन्न होती है| भगवान् कृष्ण के सभी नाम
मुख्यतम नाम कहलाते हैं जैसे– वनमाली, गिरिधारी,
केशव, माधव, मुकुंद,
गोविन्द, मदनमोहन, मुरलीधर,
श्यामसुंदर| ब्रह्माण्ड-पुराण में कहा गया है–
त्रिरावृत्त्यतु यत्फलं एकवृत्त्यतु कृष्णस्य– अर्थात– तीन बार ‘राम’ कहने से जो फल मिलता है, वही फल केवल एक बार कृष्ण
नाम लेने से मिल जाता है|
(५) मुख्यान नाम– यह भगवान् के वह नाम हैं जो वेदों में गुप्त
रखे गए हैं, किन्तु यह नाम कृष्ण के सभी मुख्यतम नामों में
भी सर्वाधिक मुख्य हैं एवं इनका कीर्तन करने से सभी गौण, मुख्य,
मुख्यतर और मुख्यतम नामों के कीर्तन करने का फल एकसाथ मिलता है|
श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के सभी नाम मुख्यान-नाम हैं जैसे–
गौर, गौरांग, महावादान्य,
कृष्ण-चैतन्य आदि| इसीलिए श्रीब्रह्मरहस्य में
कहा गया है– कृष्ण-चैतन्येति नाम मुख्यान मुख्यतमं प्रभो:|
हेलया सकृदुच्चार्य सर्वनाम फलं लभेत्| श्रीजगदानंद
पंडित प्रभु भी अपने ग्रन्थ ‘प्रेम-विवर्त’ में कहते हैं– गौर जे विशाल नाम सेइ नाम गाओ|
अन्य सब नाम महात्म्य सेइ नामे पाओ|| (कृष्ण
की पटरानी श्रीसत्यभामा ही अब गौरलीला में श्रीजगदानंद पंडित प्रभु बन कर आये हैं)|
नाम-संकीर्तन से बढ़ कर कोई अन्य साधन नहीं है| भक्ति के अन्य सभी अंग नाम संकीर्तन के
आधीन हैं| इसी लिए चैतन्य चरितामृत में कहा गया है– ‘भजनेर मध्ये श्रेष्ठ नवविधा भक्ति| कृष्णप्रेम कृष्ण
दिते धरे महाशक्ति| तार मध्ये सर्वश्रेष्ठ नाम संकीर्तन|
निरपराधे नाम लइते पाय प्रेम-धन|’
सभी शास्त्र कलिकाल में केवल नामसंकीर्तन का आश्रय लेने के
लिए कहते हैं| यद्यपि
यह शास्त्र प्रमाणित सत्य है की कलियुग में केवल नाम संकीर्तन ही उद्धार का
एकमात्र उपाय है, लेकिन आजकल ना जाने कितने ही तथाकथित ‘बाबा’ शास्त्र-वाणी का उल्लंघन करके तरह तरह के योग
जैसे– कुण्डिलिनी योग, चक्रयोग,
सहजयोग, हठयोग, सुदर्शन
क्रिया, ध्यानयोग, तंत्रयोग, शंकरयोग, ब्रह्मयोग, आदि न
जाने कितने ही न्यारे-न्यारे उपाय प्रचलित कर के साधारण लोगों को भ्रमित करने का
कुत्सित प्रयास कर रहे हैं| जो इस प्रकार शास्त्र के वचन का
उल्लंघन करके अपना मनमाना आचरण करता है, उसे ना तो इस लोक
में और ना परलोक में सुख की प्राप्ति होती है| भगवान् गीता
(१६/२३) में कहते हैं–
य:
शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारत:| न स: सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्||
जो व्यक्ति शास्त्र के वचनों का उल्लंघन करके मनमाना आचरण
करता है, उसकी ना तो कार्य-सिद्धि (मनोकामना की
पूर्ती) होती है, न ही उसे इस लोक में सुख मिलता है और ना ही
उस की परमगति (मुक्ति) होती है|
|| राग शिवरंजिनी ||२|
||
पञ्चतत्त्व नाम कीर्तन ||१०||
श्रीचैतन्य नित्यानंद
श्रीअद्वैतचन्द्र|
गदाधर श्रीवासादि
गौर भक्त वृन्द||१|
अनुवाद: यह पञ्च-तत्त्व को प्रणाम करने के लिए मंत्र है|
||
निताइ-गौर नाम कीर्तन ||११|
निताइ निताइ निताइ निताइ
निताइ निताइ निताइ हे|
गौर गौर गौर गौर
गौर गौर गौर हे||१|
अनुवाद: यह निताइ-गौर के नामों का कीर्तन करने के लिए सुन्दर पद है|
||
महामंत्र ||१२||
हरे कृष्ण हरे कृष्ण
कृष्ण कृष्ण हरे हरे|
हरे राम हरे राम
राम राम हरे हरे||१|
अनुवाद: यह महामंत्र है|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: श्रील जीव गोस्वामीपाद के अनुसार महामंत्र की व्याख्या इस
प्रकार है–
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‘हरे’ का अर्थ है– सर्वचेतोहर:
कृष्णनस्तस्य चित्तं हरत्यसौ– सर्वाकर्षक भगवान् कृष्ण के भी
चित्त को हरने वाली उनकी आह्लादिनी शक्तिरूपा ‘हरा’ अर्थात– श्रीमती राधिका|
·
‘कृष्ण’ का अर्थ है– स्वीय
लावण्यमुरलीकलनि:स्वनै:– अपने रूप-लावण्य एवं मुरली की मधुर
ध्वनि से सभी के मन को बरबस आकर्षित लेने वाले मुरलीधर ही ‘कृष्ण’
हैं|
·
‘राम’ का अर्थ है– रमयत्यच्युतं
प्रेम्णा निकुन्ज-वन-मंदिरे– निकुन्ज-वन के श्रीमंदिर में
श्रीमती राधिका जी के साथ माधुर्य लीला में रमण करते करने वाले राधारमण ही ‘राम’ हैं|
प्रमाण: हरेकृष्ण महामंत्र कीर्तन की महिमा वेदों तथा
पुराणों में सर्वत्र दिखती है| कलिकाल में केवल इसी मन्त्र के कीर्तन से उद्धार संभव है|
अथर्ववेद की अनंत संहिता में आता है–
षोडषैतानि
नामानि द्वत्रिन्षद्वर्णकानि हि| कलौयुगे महामंत्र: सम्मतो जीव तारिणे||
सोलह नामों तथा बत्तीस वर्णों से युक्त महामंत्र का कीर्तन
ही कलियुग में जीवों के उद्धार का एकमात्र उपाय है|
अथर्ववेद के चैतन्योपनिषद में आता है–
स: ऐव
मूलमन्त्रं जपति हरेर इति कृष्ण इति राम इति|
भगवन गौरचन्द्र सदैव महामंत्र का जप करते हैं जिसमे पहले ‘हरे’ नाम, उसके बाद ‘कृष्ण’ नाम तथा उसके
बाद ‘राम’ नाम आता है| ऊपर वर्णित क्रम के अनुसार महामंत्र का सही क्रम यही है की यह मंत्र ‘हरे कृष्ण हरे कृष्ण...’ से शुरू होता है, न की ‘हरे राम हरे राम....’ से|
जयपुर के संग्रहालय में अभी भी प्राचीनतम पांडु-लिपियों में
महामंत्र का क्रम इसी अनुसार देख सकते है|
यजुर्वेद के कलि संतारण उपनिषद् में आता है–
इति
षोडषकं नाम्नाम् कलि कल्मष नाशनं| नात: परतरोपाय: सर्व वेदेषु दृश्यते||
सोलह नामों वाले महामंत्र का कीर्तन ही कलियुग में कल्मष का
नाश करने में सक्षम है| इस मन्त्र को छोड़ कर कलियुग में उद्धार का अन्य कोई भी उपाय चारों वेदों
में कहीं भी नहीं है|
पद्मपुराण में वर्णन आता है–
द्वत्रिन्षदक्षरं
मन्त्रं नाम षोडषकान्वितं| प्रजपन् वैष्णवो नित्यं राधाकृष्ण स्थलं लभेत्||
जो वैष्णव नित्य बत्तीस वर्ण वाले तथा सोलह नामों वाले
महामंत्र का जप तथा कीर्तन करते हैं– उन्हें श्रीराधाकृष्ण के दिव्य धाम गोलोक की प्राप्ति होती है|