|| राग जनसम्मोहिनी ||१|
|*|
रोला-छन्द |*|१|
तीसर तत्त्व बखान
सदा अद्वैत कहायें|
जान भक्त-अवतार
भक्त सब महिमा गायें||१| ||विश्राम||
अनुवाद: अब हम पंचतत्त्व में तीसरे तत्त्व–
श्री अद्वैत आचार्य का चालीसा-गान कर रहे हैं|
पञ्चतत्त्व में वह ‘भक्त-अवतार’ कहलाते हैं| सभी भक्त इनकी महिमा का गान करते हैं|
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विश्राम ||
|*|
चौपाई छन्द |*|२|
जय जय जय अद्वैत महेश्वर|
सुत कुबेर नाभा जगदीश्वर||१|
अनुवाद : महान-ईश्वर स्वरूप श्रीअद्वैत की जय हो!जय हो! जय हो! वे
जगदीश्वर गौर लीला में श्रीमान कुबेर पण्डित एवं नाभा देवी के सुपुत्र बन कर आये
हैं|१|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: श्रीअद्वैत आचार्य, जिनके अन्य नाम ‘कमलाक्ष’ एवं ‘कमलकांत’ है– का लीला काल १४३४–१५३९ तक माना जाता है| आपका का प्राकट्य सिलहट के ‘नवग्राम’ नामक गाँव (बांग्लादेश) में हुआ था किन्तु बाद में आप बंगाल
के शांतिपुर नामक स्थान पर रहने लगे थे| आपके पिता का नाम श्री कुबेर पंडित प्रभु तथा माता का नाम
नाभादेवी है| कृष्ण लीला में जो धन के स्वामी कुबेर हैं,
वे ही अब गौरलीला में श्रीअद्वैत के पिता श्री कुबेर पंडित
प्रभु हुए हैं|
जय जय जय हरि-हर अवतारा|
सब दस दिसहु सुभक्ति प्रसारा||२|
अनुवाद : हरि-हर (भगवान् विष्णु एवं शिव) के मिलित अवतार श्री
अद्वैत आचार्य की जय हो! जय हो! जय हो! आपने दशों दिशाओं में सुन्दर भक्ति का
प्रचार किया|२|
जय जय गौर प्रकट कारन को|
जय जय कलिजन निस्तारन को||३|
अनुवाद : गौरांग महाप्रभु का प्राकट्य करने में जो एक कारण स्वरूप
हैं–
ऐसे अद्वैत आचार्य की जय हो! जय हो! कलियुग के लोगों का
भवसागर से निस्तार करने वाले अद्वैत आचार्य की जय हो! जय हो|३|
जय श्री-सीता पति गोसाईं|
तिनि किरपा मिलहैं हरि साईं||४|
अनुवाद : श्रीमती सीतादेवी एवं श्रीदेवी के पति श्रीअद्वैताचार्य
प्रभु की जय हो! आपकी कृपा से ही कृष्ण की प्राप्ति होती है|४|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: गोपियों ने कृष्णप्राप्ति के लिए जिन जगज्जननी कात्यायिनी
देवी का व्रत रखा था, तथा जो कृष्णलीला में ‘योगमाया’ के नाम से सुविख्यात हैं– वे ही अब गौर लीला में श्रीअद्वैताचार्य की भार्या श्रीमती
सीतादेवी हुई हैं| इन्हीं सीता देवी ने पुनः अपना दूसरा प्रकाश-रूप प्रकट किया,
जोकि श्रीअद्वैत की दूसरी पत्नी ‘श्रीदेवी’ के नाम से जानी जाती हैं (–गौर-गणोद्देश-दीपिका ८६)|
तिनि श्री हरि-शिव भिन्न न जानौं|
सो ‘अद्वैत’ नाम जग जानौं||५|
अनुवाद : श्री अद्वैत प्रभु भगवान् शिव तथा भगवान् विष्णु–
दोनों से ही अभिन्न हैं– इसीलिए उनको ‘अद्वैत’ कहा जाता है|५|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: अद्वैतं हरिणाद्वैताद आचार्यं भक्तिशंसनात|
भक्तावतारं ईशं तं अद्वैताचार्यं आश्रये||-
हरि से अभिन्न होने के कारण जो ‘अद्वैत’ नाम से जाने जाते हैं, जो अपने आचरण से दूसरों को भक्ति सिखलाते हैं–
इसीलिए जिन्हें ‘आचार्य’ कहा जाता है, जो स्वयं ईश्वर भी हैं तथा ईश्वरभक्त भी हैं–
ऐसे श्रीअद्वैताचार्य की मैं शरण ग्रहण करता हूँ|–
चै॰च॰ १/६/५
निज आचरन भक्ति सिखलावहिं|
सो ‘आचार्य’ नाम सब गावहिं||६|
अनुवाद : वे स्वयं भक्ति का आचरण करके सबको कृष्ण-भक्ति करना
सिखलाते हैं| इसीलिए उनको ‘आचार्य’ कहा जाता है|६|
कलि को प्रथम चरन जब काला|
जग बिसरो हरिनाम रसाला||७|
अनुवाद : जब कलियुग का प्रथम चरण आया, तब सारा जगत ही हरिनाम संकीर्तन को भूल गया|७|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: उस समय भारत में कृष्णभक्त और कृष्णभक्ति का मानों अकाल ही
पड़ गया था–
दग्ध देखे
सकल संसार भक्तगण| अलापेर स्थान नहीं करेन क्रंदन||
(चै॰च॰–
१/२/१०६)
अद्वैताचार्य आदि भक्तों लोगों को कृष्णभक्ति के अभाव की
अग्नि से दग्ध होते हुए देख कर बहुत दुखी होते थे| सारा संसार ही कृष्णभक्ति से विमुख हो गया है–
यह देख कर सभी भक्त क्रंदन करते थे लेकिन उन्हें ऐसा कोई
नहीं दिखाई देता था जिसे वे अपना दुःख कह सकें|
चतुर्चरन लच्छन दिसि दिसहू|
सब जग को हरिमाया ग्रसहू||८|
अनुवाद : शास्त्रों में कलियुग के चौथे चरण के जो लक्षण बताये गए
हैं,
वे लक्षण प्रथम चरण में ही दशों दिशाओं में प्रकट हो गए|
सारे संसार को हरिमाया ने ग्रस लिया|८|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: उस समय पाप इतने बढ़ गए की पुराणों में जो लक्षण कलियुग की
चतुर्थ संध्या के बताये गए हैं– वे कलि की प्रथम संध्या में ही प्रकट हो गए थे|
चतुर्थ संध्या के लक्षण यह हैं की उस समय के लोग भक्तों से
अकारण ही वैर ठान लेते हैं| श्रीअद्वैत तथा अन्य भक्त मिल कर उस समय के लोगों को कृष्णभक्ति
की महत्ता बार-बार समझाते थे, लेकिन उस समय के लोग पापों की अधिकता के कारण इतने मंदमति
हो गए थे की भक्तों के बार-बार समझाने पर भी उन्हें कुछ भी समझ में नहीं आता था|
वे लोग भक्ति करना तो दूर, उल्टा उन्हीं भक्तों से वैर ठान कर कहते थे–
केह बोले ए ब्राह्मणे एइ ग्राम हइते|
घर भंगि घुचाइया फेलाइमु श्रोते||
(चै.च १/२/११४)–
इस ब्राह्मण को या तो गाँव से बाहर फिंकवा दूंगा,
या इसकी कुटिया तुड़वा दूंगा या फिर गंगा में ही फिकवा दूंगा|
तब कीन्हो प्रभु प्रन मन माहीं|
कृष्णहि प्रकट करउ जग माहीं||९|
अनुवाद : तब श्री अद्वैत आचार्य ने यह प्रण किया–
“मैं भगवान् कृष्ण को
अवश्य ही इसी कलियुग में अवतरित करवाऊंगा”|९|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: श्रीअद्वैत ने कहा– यबे नहीं परों तबे एइ देह हइते|
प्रकाशिया चारि भुजा चक्र लइमु हते||–
यदि मैं कृष्ण को प्रकट करवाने में विफल रहा तो अपना
सुदर्शन चक्र हाथ में ले कर के सभी पापियों का विनाश कर दूंगा–
चै.च. १/२/१२०|
हरि लैं गौर कृष्ण अवतारा|
श्रीहरिनाम रसहिं परसारा||१०|
अनुवाद : स्वयं कृष्ण ही गौरांग के रूप में अवतार लेंगे तथा सारे
जगत में श्रीहरिनाम संकीर्तन का प्रचार करेंगे|१०|
प्रभु तुलसी गंगा जल लैहैं|
सालिग्राम सेवाव्रत लैहैं||११|
अनुवाद : ऐसा सोच कर श्रीअद्वैत प्रभु ने भगवान् शालिग्राम की
आराधना का व्रत लिया और तुलसी-गंगाजल से उनकी आराधना प्रारम्भ कर दी|११|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: भगवान् शालिग्राम की आराधना की साक्षात भगवान् विष्णु की
आराधना है –
शालग्राम
शिलायन्तु साक्षात श्रीकृष्ण सेवनं| नित्यं सन्निहितस्तत्र वासुदेवो जगद्गुरु:||
श्रीशालिग्राम शिला की आराधना प्रत्यक्ष श्रीकृष्ण की ही
आराधना है| जगद्गुरु भगवान् वासुदेव शालिग्राम के रूप में सदा निवास
करते हैं|
(–पद्मपुराण)
गौतमीय तंत्र में
कहा गया है–
तुलसी जल
मात्रेण जलस्य चुलुकेन वा| विक्रीणीते स्वमात्मानं भक्तेभ्यो भक्त वत्सल:||
श्रीकृष्ण ऐसे भक्तवत्सल हैं की अपने भक्त के द्वारा अर्पित
किये हुए चुल्लूभर गंगाजल तथा एक तुलसी के पत्ते के बदले में वे अपने आप तक को बेच
डालते हैं|
किन्तु निराकारवादी और पाखण्डी भगवान् के आकार को नहीं
मानते|
इसलिए वे प्राय: मूर्तिपूजा एवं शालिग्राम पूजा की निंदा
करते रहते हैं| एक बार एक वृद्धा माता ने एक संन्यासी को अपने घर प्रसाद
हेतु निमंत्रित किया| दुर्भाग्यवश उस माता का पुत्र पाखण्डी था|
उसने वैष्णव संन्यासी को भगवान् शालिग्राम को भोग लगाते हुए
देखा और कहा– ओह! यह संन्यासी हो कर भी सर्व्यापक परमेश्वर को छोड़ कर
जड़-पदार्थों की पूजा में लगे हुए हैं| तब संन्यासी महाराज ने कहा– सामने दीवार पर जो जो तुम्हारे दिवंगत पिता का चित्र है,
वह भी तो जड़ पदार्थ का ही बना हुआ है,
क्या तुम उस पर थूक सकते हो? यह सुन कर वह व्यक्ति लज्जित हो कर चला गया|
कृष्ण कृष्ण हरि साहिब मोरे|
आवउ हरि सनाथ करि जोरे||१२|
अनुवाद : भगवान् की आराधना करते समय वे आर्त्त स्वर में पुकारते थे–
“हे कृष्ण! हे कृष्ण!
हे हरि! मेरे स्वामी! मैं दोनों हाथ जोड़ कर के प्रार्थना करता हूँ–
शीघ्र अवतार लेकर के इस पृथ्वी को सनाथ कर दो!”-|१२|
सोहि सबद उच्चार करहि हैं|
ब्रह्म अण्ड को भेद परहि हैं||१३|
अनुवाद : श्री अद्वैत आचार्य के द्वारा उच्चारित यह आर्त्त स्वर इस
ब्रह्माण्ड के सातों आवरणों को भेद गया|१३|
भेद गयो बैकुण्ठ अनंता|
कृष्ण सुनहिं गोलोक सुकंता||१४|
अनुवाद : वह स्वर अनंत वैकुंठों को भी पार कर गया तथा सबसे ऊपर श्री
गोलोक धाम में पहुँच गया जहाँ पर सब के स्वामी भगवान् कृष्ण विराजमान हैं|१४|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: श्रीअद्वैत आचार्य की ध्वनी इतनी तीव्र थी की वह भूर्लोक,
भुवर्लोक, स्वर्लोक, महर्लोक, जनलोक, तपलोक, सत्यलोक को भेदती हुई ब्रह्माण्ड के सात आवरणों को तथा अंत
में प्रधान तथा महत्तत्व को भी भेद गयी| उसके और ऊपर कारण-समुद्र तथा फिर निराकार-ब्रह्मज्योति को
भेदती हुई आध्यात्मिक क्षेत्र में सदाशिवलोक, वैकुण्ठलोक और साकेतलोक को भी पार करती हुई उस गोलोक में
पहुँच गयी जहाँ पर राधा-कृष्ण विराजमान हैं|
तिस बाणी को साचि करन को|
कृष्ण गौर बनि अयहिं धरन को||१५|
अनुवाद : भगवान् कृष्ण ने जब श्री अद्वैत प्रभु के द्वारा उच्चारित
वाणी को सुना, तो उनके प्रण को सत्य करने के लिए ही कृष्ण गौरांग के रूप
में पृथ्वी पर प्रकट हो गए|१५|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: केवल अधर्म की वृद्धि होने मात्र से ही भगवान् अवतार धारण
नहीं करते| जब भगवान् के प्रेमीभक्त जीवों की दुर्दशा देख कर भगवान् को
बुलाते हैं, तब उन भक्तों की वाणी को सत्य करने के लिए ही भगवान् अवतार
धारण करते हैं| जगत के ईश्वर भगवान् विष्णु एवं शिव ही मिलित रूप से
महाभक्त श्रीअद्वैत के रूप में अवतरित हुए हैं|
भगवान् स्वयं अथर्ववेद के तृतीय खण्ड (ब्रह्मविभाग) में
कहते हैं–
“ईश्वर प्रार्थितो निज रसास्वादो भक्तरूपो मिश्राख्यो विदित
योग: स्याम्”– भक्तरूपी ईश्वर के प्रार्थना करने पर मैं अपनी ही भक्ति का
रसास्वादन करने के लिए मैं अवतार धारण करूँगा| इस अवतार को केवल मेरे अन्तरंग पार्षद ही पहचान सकेंगे|
‘विश्वरूप’ हरिजू को
भ्राता|
आचारज संग हरि गुन गाता||१६|
अनुवाद : गौरांग महाप्रभु के एक बड़े भ्राता भी थे,
जिनका नाम ‘विश्वरूप’ था| वे प्रतिदिन अद्वैत आचार्य के घर जा कर श्रीहरिनाम संकीर्तन
तथा कृष्णकथा का गान करते थे|१६|
निस दिन गौर महाप्रभु अयहैं|
भ्राता भोजन हेतु बुलयहैं||१७|
अनुवाद : उस समय गौरांग महाप्रभु एक छोटे बालक ही थे|
वे प्रतिदिन अपने बड़े भाई को भोजन हेतु बुलाने के लिए
श्रीअद्वैत आचार्य के घर जाते थे|१७|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: उस समय गौरांग महाप्रभु एक छोटे बालक ही थे|
वे प्रतिदिन अपने बड़े भाई को भोजन हेतु बुलाने के लिए
श्रीअद्वैत आचार्य के घर जाते थे|१७|
प्रभु हरि जू को देख परहि हैं|
यह बिचार मन माहि करहि हैं||१८|
अनुवाद : तब श्रीअद्वैत आचार्य भगवान् गौरांग को देख कर उनके रूप को
एकटकी लगा कर निहारते थे तथा अपने मन में इस प्रकार से विचार करते थे–
|१८|
जब हम सोको दरसन करिहैं|
मम हिय को अति मोहित करिहैं||१९|
अनुवाद : “यह बालक प्रतिदिन ही अपने दर्शन दे कर के मेरे चित्त को इस प्रकार
से मोहित क्यूँ कर लेता है?”|१९|
गौरहरि प्रभु मंद मुस्काने|
मन बिचार करिहैं गुन खाने||२०|
अनुवाद : भगवान् गौरांग अन्तर्यामी होने के कारण श्रीअद्वैत प्रभु
के मन की बात को जान कर के मंद-मंद मुस्काते हुए मन में कहते थे- |२०|
तोर निमंत्रण धावत अयहौं|
सो तुम काहे बूझ न पयहौं||२१|
अनुवाद : “तुम्हारी पुकार सुन कर के ही तो मैंने पृथ्वी पर अवतार लिया
है|
अब किस कारण से मुझे नहीं पहचानते?”|२१|
एकहु समय गौर हरिराये|
सप्त प्रहर भावन प्रकटाये||२२|
अनुवाद : एक बार गौरांग महाप्रभु ने सात प्रहर तक अपना महाभाव (अपनी
भगवत्ता) को सभी भक्तों के समक्ष प्रकाशित किया|२२|
सब भक्तन को निज अवतारा|
दरसन दैहैं बहुत प्रकारा||२३|
अनुवाद : भगवान् गौर-कृष्ण ने (विभिन्न अवसरों पर) सभी भक्तों को
बहुत प्रकार से अपने अवतारों के दर्शन करवाए|२३|
सो आचार्य दिखावन हेतू|
कहु रामाइ बुलावन हेतू||२४|
अनुवाद : श्री अद्वैत आचार्य को अपनी भगवत्ता दिखाने के लिए गौरांग
महाप्रभु ने अपने एक दास ‘रामाइ पंडित प्रभु’ को उन्हें लिवा लाने के लिए भेज दिया|२४|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: कृष्णलीला में जो कृष्ण के प्रिय ‘पयोद’ नामक दास जो उनके स्नान इत्यादि के लिए जल भर कर लाते हैं,
वे ही अब गौर लीला में ‘रामाइ पंडित प्रभु’ हुए हैं|
सो सुनिहें सुधि दासहिं द्वारा|
लुकिहैं जाय नन्द के द्वारा||२५|
अनुवाद : जब अद्वैत आचार्य ने सुना की गौरांग महाप्रभु स्वयं भगवान्
कृष्ण ही हैं तथा अपने सभी भक्तों को अपनी भगवत्ता का दर्शन करवा रहे हैं,
तब गौरांग महाप्रभु की परीक्षा लेने के लिए अद्वैत आचार्य
श्रीनन्दनाचार्य के घर पर जा कर के छिप गए|२५|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: श्रीनन्दनाचार्य चैतन्य-वृक्ष की सत्रहवीं शाखा माने जाते
हैं–
नंदन आचार्य शाखा जगते विदित| लुकाइया दुइ प्रभु यांर घरे स्थित (चै॰च॰१/१०/३९)–
सारे जगत में विदित है की नंदन आचार्य चैतन्य वृक्ष की शाखा
हैं क्योंकि गौरांग तथा नित्यानंद प्रभु– दोनों ही उनके घर पर छिपे थे| इन्हीं के घर पर श्रीअद्वैत भी जा छिपे थे|
यह लीलाएं चैतन्य भागवत के अध्याय ६ तथा १७ मध्य खंड में
वर्णित हैं|
तिनि प्रति प्रभु यह बैन उचारा|
हरि प्रति नाहिं करउ प्रकटारा||२६|
अनुवाद : श्री अद्वैत आचार्य ने सेवक से कह दिया–
“मैं श्रीनन्दनाचार्य
के घर में छिप जाऊंगा| लेकिन महाप्रभु के प्रति इस बात को प्रकट मत करना”|२६|
सो हरि पुनि आदेस करय हैं|
नन्दहिं सदन जाय लै अयहैं||२७|
अनुवाद : जब सेवक गौरांग महाप्रभु के पास आये,
तो अन्तर्यामी प्रभु सब बात जान गए तथा सेवक को
श्रीनान्दनाचार्य के घर से बुला लाने के लिए आदेश दिया|२७|
प्रभु निज भगवत्ता प्रकटावहिं|
पार ब्रह्मता निज दिखलावहिं||२८|
अनुवाद : तब गौरांग महाप्रभु ने अपनी भगवत्ता को सभी भक्तों के
सामने प्रकट कर दिया| उन्होंने सब को दिखलाया की वे स्वयं ही परब्रह्म परमेश्वर
हैं|२८|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: भगवान् साधारण व्यक्तियों को अपना रूप नहीं दिखलाते|
इसीलिए उन्होंने केवल अपने भक्तों को ही अपने अवतार दिखाए|
भगवान् गीता (७/१३) में कहते हैं–
नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमाया समावृतः–
अपनी योगमाया के द्वारा छिपा हुआ मैं सबके सामने अपने आपको
प्रकाशित नहीं करता|
षड भुज रूप सबै दिखलावहिं|
रूप चतुर भुज राम समावहिं||२९|
अनुवाद : उन्होंने सब भक्तों को अपना छह भुजाओं वाला रूप दिखलाया|
इसी षड्भुज रूप में उनका शंख, चक्त्र , गदा एवं पद्म धारी चार भुजाओं वाला चतुर्भुज रूप तथा
(हल-मूसल धारी) बलराम रूप समाया हुआ था|२९|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका:
चांचर
चिकुरे माला शोभे अति भाल| छय भुज विश्वंभर हइला तत्काल||
शंख चक्र
गदा पद्म श्रीहल-मूषल| देखिया मूर्छित हइला निताइ विह्वल||
-
चै॰भागवत २/५/९२-९३
भगवान् गौरसुन्दर की घुंघराली केशराशि पर जैसे ही माला
सुशोभित हुई, तो भगवान् ने तत्काल अपना षड्भुज रूप प्रकट किया|
उनकी भुजाओं में शंख, चक्र, गदा, पद्म, हल और मूसल धारण किये हुए थे| इस रूप क्र दर्शन करने के पश्चात नित्यानंद प्रभु प्रेम के
कारण मूर्छित हो कर गिर पड़े|
तबे
चतुर्भुज हइला, तीन अंग वक्र|
दुइ हस्ते
वेणु बाजाये दुये शंख-चक्र|| (चै॰च॰ १/१७/१४)
तभी भगवान् ने अपना चतुर्भुज रूप प्रकट किया जिसमें
कृष्णरूप एवं विष्णुरूप मिले हुए थे| वे त्रिभंग-ललित मुद्रा में खड़े हुए थे,
दो हाथों से बांसुरी पकड़ कर बजा रहे थे और बाकी दो हाथों
में शंख और चक्र धारण किये हुए थे| जगन्नाथ पुरी में भी भगवान् गौरसुन्दर ने श्रील सार्वभौम
भट्टाचार्य को अपने षड्भुज रूप के दर्शन प्रदान किये थे|
कृष्णलीला में जो देवताओं के गुरु बृहस्पति हैं,
वे ही अब गौर लीला में सार्वभौम भट्टाचार्य के रूप में
प्रकट हुए हैं|
राम कृष्ण को रूप दिखावा|
विश्वरूप भक्तनि दिखलावा||३०|
अनुवाद : फिर भगवान् ने अपने अन्तरंग पार्षदों के समक्ष अपना
त्रिभंगी श्रीकृष्णरूप तथा श्रीरामरूप प्रकट किया| भगवान् ने भक्तों को अपने विश्वरूप के दर्शन भी कराये|३०|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका:
मुरारिरे
आज्ञा हैल– मोर रूप देख| मुरारि देखये रघुनाथ परतेक||
दुर्वादल
श्याम देखे सेइ विश्वंभर| वीरासने बसियाछे महाधनुर्धर||
जानकी
लक्ष्मणे देखे वामेते दक्षिणे| चौदिके करये स्तुति वानरेन्द्र गणे||
(चैतन्य भागवत २/१०/७-९)
भगवान् गौर सुन्दर ने मुरारि प्रभु को आज्ञा दी–
मेरे रूप को देखो| मुरारि पंडित ने भगवान् राम को प्रत्यक्ष अपने सामने
विराजमान देखा| उन्होंने उन्हीं गौरसुन्दर को दुर्वादल श्यामरूप में
धनुष-बाण धारण किये हुए वीरासन में विराजित देखा| उनके दक्षिणभाग में लक्ष्मण जी तथा वामभाग में माता जानकी
जी थीं तथा असंख्य वानरों के राजा उनकी हाथ जोड़ कर स्तुति कर रहे थे|
तबे त
द्विभुज केवल वंशीवदन|
श्याम-अंग
पीतवस्त्र व्रजेन्द्र नंदन||
(चै॰च॰ १/१७/१५)
तभी महाप्रभु ने अपना द्विभुज वृजेन्द्रनंदन कृष्ण रूप
दिखाया|
वे केवल दोनों हाथों से मुरली बजा रहे थे|
उनका सांवला वर्ण था तथा उन्होंने पीले रंग के वस्त्र धारण
किये हुए थे|
श्रीगौरांग ने अद्वैत प्रभु को अपने विराट रूप के दर्शन
कराये|
(अद्वैत पाइला विश्वरूप
दर्शन–
चै॰च॰ १/१७/१०)
लक्ष कोटि ऋषि मुनि जन देवा|
करिहैं हाथ जोड़ प्रभु सेवा||३१|
अनुवाद : श्रीअद्वैत आचार्य ने देखा की लाखों करोड़ों ऋषि,
मुनि, एवं देवी-देवता हाथ जोड़ कर विश्वरूप गौरांग महाप्रभु की
सेवा कर रहे हैं|३१|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: उलटि आचार्य देखे चरणेर तले| सहस्त्र सहस्त्र देव पड़ि ‘कृष्ण’ बले|| (चै॰भागवत २/६/८६)–जब महाप्रभु ने अपना विराट रूप श्रीअद्वैत को दिखाया तो
श्रीअद्वैत जिस दिशा में भी देखते हैं, उन्हें यही दिखाई देता है की हजारों-हज़ारों देवी-देवता हाथ
जोड़ कर भगवान् गौरहरि के चरणों में गिर कर ‘कृष्ण-कृष्ण’ बोल रहे हैं|
लक्ष कोटि ब्रह्माण्ड अपारा|
हरि नाभिका माहीं पसारा||३२|
अनुवाद : श्रीअद्वैत प्रभु ने देखा की लाखों-करोड़ों ब्रह्माण्ड
धूल-कणों की तरह भगवान् की नाभि में तैर रहे हैं|३२|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: ऋग्वेद के पुरुष सूक्त (१४) में इस बात की पुष्टि हुई है–
“नाभ्या आसीदन्तरिक्षं”–
सम्पूर्ण अंतरिक्ष एवं ब्रह्माण्ड विराट पुरुष की नाभि में
स्थित हैं|
आगे भी कहा गया है– “पादोઽस्य विश्वा भूतानि
त्रिपादस्यामृतं दिवि”– अनगिनत ब्रह्माण्ड जिसमें तैर रहे हैं,
वह जड़-मायामयी सृष्टि तो केवल एक पाद (अंश या भाग) में
स्थित है|
बाकी के तीन पाद में योग-मायामयी आध्यात्मिक सृष्टि है,
जिसमें सदाशिव लोक, वैकुण्ठ लोक, साकेत लोक एवं गोलोक स्थित हैं|
अत: यह जड़ सृष्टि इतनी विशाल होते हुए भी आध्यात्मिक सृष्टि
की तुलना में एक राई के दाने के समान छोटी है|
निज प्राकट्य कहहिं सब दीन्हीं|
अद्वैतहु मम गोचर कीन्हीं||३३|
अनुवाद : गौरांग महाप्रभु ने सब भक्तों को अपने अवतार लेने का कारण
बताते हुए कहा है की श्रीअद्वैत आचार्य ने ही मुझे गोलोक धाम से पृथ्वी पर अवतरित
करवाया है|३३|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: देखिया जीवेर दुःख ना पारि सहिते|
आमारे आनिले सब जीव उद्धारिते||–
चै॰भागवत २/६/९६– पृथ्वी के जीवों का दुःख देख कर तुम सहन नहीं कर पाये
इसीलिए उन सब जीवों का उद्धार करने के लिए तुमने मुझे बुलाया|
जब हरि जगन्नाथ पुरि आये|
प्रतिहिं बरस दरसनि को धाये||३४|
अनुवाद : जब श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु संन्यास लेकर श्रीजगन्नाथ
पुरी आ गए तब श्रीअद्वैत आचार्य हर वर्ष भगवान् के दर्शन करने के लिए बंगाल से
पुरी में आते थे|३४|
सीता ठकुरानी कर रंधन|
परसहिं हरि को बहु बिधि ब्यंजन||३५|
अनुवाद : श्रीअद्वैत प्रभु की अर्धांगिनी श्रीमती सीता ठकुरानी
गौरांग महाप्रभु के लिए बहुत प्रकार के व्यंजन बना करके उनको परोसती थीं|३५|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: एक बार श्रीअद्वैत आचार्य तथा श्रीमती सीता ठकुरानी ने
महाप्रभु के लिए बहुत प्रकार के व्यंजन बनाए| महाप्रभु के साथ अन्य कई संन्यासी भोजन के लिए उन के साथ
जाते थे|
श्रीअद्वैत प्रभु ने सोचा की यदि आज महाप्रभु किसी तरह से
अकेले ही आ जायें, तो वे सभी व्यंजन केवल महाप्रभु को अर्पित कर सकते हैं|
उधर महाप्रभु तथा अन्य संन्यासी भोजन के लिए श्रीअद्वैत
प्रभु के घर की ओर चल चुके थे| लेकिन गौरांग अन्तर्यामी हैं– इसीलिए उन्होंने अपने भक्त के मन की बात को जान लिया|
अचानक ही मार्ग में ऐसा आंधी तूफ़ान शुरू हो गया की सभी
संन्यासी तूफान में बिखर गए तथा महाप्रभु अकेले ही अद्वैत प्रभु के घर पहुँच गए|
उन्होंने अपने भक्त के द्वारा अर्पित सभी व्यंजनों का भोजन
किया|
गौरहरि संग नृत्य करे हैं|
कंप स्वेद अश्रु जल झरे हैं||३६|
अनुवाद : श्रीअद्वैत आचार्य गौरांग महाप्रभु के साथ श्रीहरिनाम
संकीर्तन में नृत्य करते हैं| नृत्य करते समय प्रेमोद्रेक के कारण उनके दिव्य देह में
अष्ट-सात्त्विक भाव प्रकट होते हैं जैसे– कंप, स्वेद (पसीना आना) तथा नयनों से अश्रु प्रवाहित होना|३६|
गौर प्रेम बस बाह्य न रहिहैं|
हंसहिं रोवहिं भूमि परहिहैं||३७|
अनुवाद : श्रीअद्वैत आचार्य गौर-प्रेम के वशीभूत होकर बाह्य सुध बुध
खो बैठते हैं तथा कभी अकेले ही जोर जोर से हँसते हैं,
कभी रोते हैं और कभी भूमि पर धूल में लोटते हैं|३७|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: श्रीमद्भागवतम् ११/१४/२४ में जो शुद्धभक्त के प्रेमोद्रेक
के लक्षण बताये गए हैं, वे सब तो गौर एवं गौर पार्षदों में ही दृष्टिगोचर होते हैं–
वाग
गद्गदा द्रवते यस्य चित्तं रुदत्यभीक्ष्णं हसति क्वचिच्च|
विलज्ज
उद्गायति नृत्यते च मद्भक्तियुक्तो भुवनं पुनाति||
मेरे प्रति प्रेमोद्रेक के कारण जिनका कंठ गद्गद हो गया है,
प्रेम के कारण जिनका चित्त पिघल कर एकमात्र मेरी ओर ही बहता
रहता है,
जिनके नयनों से आँसुओं की लड़ी टूटने का नाम ही नहीं लेती,
जो मेरी लीलाओं का स्मरण करके किसी ग्रहग्रस्त पागल की तरह
कभी तो उच्चस्वर से रोने लगते हैं और दूसरे ही पल अट्टहास करके हंसने लगते हैं,
जो लोकलाज को छोड़ कर कभी तो उच्चस्वर से मेरे नाम तथा गुण
इत्यादि का कीर्तन करने लगते हैं, और कभी नृत्य-लम्पट की तरह मेरे कीर्तन में उद्दंड नृत्य
करने लगते हैं– ऐसे मेरे भक्त स्वयं को तो क्या,
सम्पूर्ण त्रिलोकी को ही पवित्र कर डालते हैं|
सोही कृपा बिनहु हे भाई|
गौरहिं कृपा मिलहु के नाई||३८|
अनुवाद : हे भाई! श्रीअद्वैत आचार्य प्रभु की कृपा के बिना किसी को
भी गौरांग महाप्रभु की कृपा नहीं मिलती|३८|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: इसीलिए एक वैष्णव भजन में कहा गया है–
दया करो सीतापति अद्वैत गोसाईं|
तव कृपा बले पाये चैतन्य निताइ||
गौरहिं कृपा बिनहु हे बांधव|
सहज ना मिलहिं राधा-माधव||३९|
अनुवाद : हे बन्धु! गौरांग महाप्रभु की कृपा के बिना श्रीराधा-माधव
की प्राप्ति होना बहुत ही कठिन है|३९|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: श्रील भक्तिविनोद ठाकुर लिखते हैं की देवर्षि नारद राजा
सुवर्णसेन से कहते हैं :
गौर नाम
ना लइया जेइ कृष्ण भजे गिया| सेइ कृष्ण बहु काले पाय||
-
(नवद्वीप धाम महात्म्य
७/२२)
–
जो कृष्ण का भजन तो करते हैं, लेकिन ‘गौरांग’ नाम का आश्रय नहीं लेते, उन्हें बहुत काल के बाद ही कृष्ण की प्राप्ति होती है|
यदि प्रश्न हो की कितना समय लग सकता है,
तो इस के उत्तर में कहते हैं:
कोटि-कोटि
वर्षे धरि श्रीकृष्ण भजन|
तथापि
नामेते रति ना पाये दुर्जन||
–
करोड़ों–करोड़ों वर्ष भी यदि कोई कृष्ण भजन करता रहे,
तो भी अपराधी व्यक्ति की कृष्ण नाम में रति नहीं होती|
कलियुग में विरला ही कोई मनुष्य है जिसके अपराध नहीं हैं|
श्रील भक्तिविनोद ठाकुर नवद्वीप धाम महात्म्य में कहते हैं–
कलि जिवेर
अपराध असंख्य दुर्वार|
गौर नाम
बिना ता’र नाहिक उद्धार||
–
कलियुग में जीवों के अपराध असंख्य तथा दुर्विजेय हैं|
गौरांग नाम का आश्रय लिए बिना कलियुग में किसी का भी उद्धार नहीं हो सकता|
सीता अरु अद्वैत महेश्वर|
करहु प्रनाम जान जगदीश्वर||४०|
अनुवाद : मैं श्रीमति सीता ठकुरानी तथा श्रीअद्वैत आचार्य प्रभु को
(लक्ष्मी-नारायण अथवा शिव-पार्वती) जगदीश्वर-स्वरूप जान कर पुन: पुन: प्रणाम करता
हूँ|४०|
|| राग दरबारी ||२|
||
मनहरण घनाक्षरी छन्द ||१||
याको प्रेम टेर सुनि
गौर कलि माहि आये
ऐसो सो सकति धारी
कौन जग माये है|
कृष्ण नाम दान दैहैं
जीव को गुमान लैहैं
ऐसे वैसे जोहों सोहों
पापी त्रान पाये है|१|
अनुवाद : जिनकी प्राथना को सुन कर के स्वयं भगवान् कृष्ण गौरांग
महाप्रभु के रूप में इस कलियुग में प्रकट हो गए, ऐसे श्रीअद्वैत प्रभु के समान शक्ति धारण करने वाला भला इस
जग में कौन है? श्रीअद्वैत आचार्य प्रभु जीवों को कृष्ण-नाम का दान देते
हैं,
उनकी कृपा से जीवों का मिथ्या अहंकार दूर होता है तथा उनकी
कृपा से गुरु, गुरुतर तथा गुरुतम– चाहे जैसे भी पापी क्यों ना हों–
सभी ही इस भवसागर से परित्राण पा जाते हैं|१|
अद्वैत चालीसा नीको
सो ही सों अद्वैत भई
तिनि कृपा ते अद्वैत
भाव जाये धाये है|
कृष्णदास नाम रस
बरसे दिसिहु दस
कृपा आस दास लै के
लीला जस गाये है||२|
अनुवाद : इस सुन्दर अद्वैत चालीसा को अद्वैत प्रभु से अद्वैत
(अभिन्न) ही जानो| श्री अद्वैत की कृपा से ही अद्वैत-भाव भाग खड़ा होता है|
‘कृष्ण दास’
कह रहे हैं की दशों दिशाओं में श्रीहरिनाम रस का
प्रचार-प्रसार हो– अपने मन में यही आशा रखके ही कृष्ण दास श्रीअद्वैत प्रभु के
लीला यश को गा रहे हैं|२|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: यहाँ पर ‘सो ही सों अद्वैत भई’ का अर्थ है की अद्वैत-चालीसा श्रीअद्वैत प्रभु से अभिन्न है|
दूसरी पंक्ति में ‘अद्वैत-भाव’ का अर्थ श्रीअद्वैत प्रभु के प्रति भक्ति-भाव नहीं है,
अपितु निराकार-वादियों का ‘अद्वैतमत’ है| जैसे सूर्य ही सूर्य-मण्डल तथा प्रकाश का उद्गम स्थान है,
उसी प्रकार से साकार मूर्ति भगवान् ही परमात्मा तथा निराकार
ब्रह्म का स्त्रोत हैं| यह तथ्य ऋग्वेद (१/२२/२०) में भी वर्णित हुआ है –
तद्विष्णोः
परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः। दिवीव चक्षुराततम्॥
संतजन अपने दिव्य चक्षुओं द्वारा उस परमपद-स्वरूप भगवान्
विष्णु का सदा ही दर्शन करते हैं जो की सूर्य के समान देदीप्यमान है|
इसीलिए गौड़ीय
वैष्णव परमात्मा अथवा निराकार ब्रह्म को ‘असत्य’ मान कर उसका कभी भी
खंडन नहीं करते, अपितु उन्हें भगवान् का अंश-विस्तार एवं प्रकाश-विस्तार मान
कर उन्हें स्वीकार करते हैं|
किन्तु निराकारवादी कहते हैं की परम-सत्य का कोई आकार अथवा
रूप नहीं है| वे सभी आकारों अथवा रूपों को केवल माया से निर्मित मानते
हैं|
दुर्भाग्यवश वे भगवान् राम-कृष्ण आदि के
मनुष्याकृति-परब्रह्म-रूपों को भी माया से ही निर्मित मानते हैं|
इसीलिए निराकार-वादियों को ‘मायावादी’ भी कहा जाता है| किन्तु सभी शास्त्र कहते हैं की भगवान् का विग्रह (शरीर)
सच्चिदानंदमय है– (ईश्वर: परम: कृष्ण: सच्चिदानंद विग्रह:–
श्रीब्रह्मसंहिता)| भगवान् ने गीता में स्वयं मायावादियों के इस कुत्सित मत का
अनेक श्लोकों में खंडन किया है|
भगवान् गीता ७/२४ में कहते हैं–
अव्यक्तं
व्यक्तिमापन्नं मन्यते मामSबुद्धय:|
परं भावं
अजानन्तो मामव्ययं अनुत्तमं||
–
जो बुद्धिमान नहीं हैं, वे सोचते हैं की मेरा मूल स्वरूप अव्यक्त (निराकार) है तथा
मेरे इस साकार व्यक्तरूप (द्विभुज कृष्णरूप) की उत्पत्ति उसी निराकार-ब्रह्म से
हुई है|
इस का कारण यह है की वे मेरे सभी रूपों में सबसे उत्तम मेरे
इस अव्यय (सनातन) अजन्मा-अनंत साकार कृष्णरूप के परमभाव को नहीं जानते|
मायावादी कहते हैं की निराकार से ही सभी आकार प्रकट हुए हैं|
किन्तु भगवान् गीता १४/२७ में कहते हैं की वे स्वयं ही
निराकार-ब्रह्म के मूल स्त्रोत हैं– “ब्राह्मणो हि प्रतिष्ठानं”|
मूल शब्द ‘निराकार’ नहीं है अपितु ‘आकार’ ही मूल शब्द है क्योंकि जब ‘आकार’ में ‘नि’ मिलाया जाता है, तभी ‘निराकार’ बनता है| अत: ‘आकार’ से ‘निराकार’ बनता है, न की ‘निराकार’ से ‘आकार’|
निराकारवादी सोचते हैं की इस अनंत सृष्टि का नियंता भला कोई
साधारण मनुष्य की तरह दिखने वाला कैसे हो सकता है| वे सोचते हैं की भगवान् मनुष्यरूप में सर्वव्यापक नहीं हो
सकते,
सर्व्यापक तो केवल निराकार ब्रह्म ही हो सकता है|
किन्तु वे यह नहीं समझ पाते की जिस प्रकार सूर्य साकार रूप
में एक जगह स्थित रह कर अपने निराकार प्रकाश को सभी ओर आलोकित करता है,
उसी प्रकार से भगवान् अपने मूल साकार रूप से एक स्थान पर
स्थित हो कर भी ब्रह्म एवं परमात्म रूप से सब जगह विराजमान हैं|
भगवान् भले ही साधारण मनुष्य के रूप में दिखते हैं,
पर वे साधारण मनुष्य कदापि नहीं हैं–
वे जन्म-मरण से रहित सर्वशक्तिमान मनुष्याकृति परब्रह्म
पूर्ण-परमेश्वर हैं| इसीलिए भगवान् गीता ९/११ में कहते हैं–
अवजानन्ति
मां मूढाः मानुषीं तनुंमाश्रितं|
परं भावंSजन्तो मम् भूत महेश्वरं||
–
जब मैं अपने इस मूल मनुष्याकार रूप (द्विभुज कृष्णरूप) में
प्रकट होता हूँ, तो मूर्ख व्यक्ति मेरे इस साकाररूप को नश्वर मान कर इसकी
सनातनता का खंडन करते हैं| वे मेरे परमभाव को नहीं जानते की (मैं इसी नराकृति कृष्ण
रूप में ही) सभी भूतप्राणियों का एकमात्र महान ईश्वर हूँ|
पद्मपुराण,उत्तरखण्ड (२५/७) में भगवान् शिव देवी पार्वती जी से कहते
हैं–
“मायावादं असच्छास्त्रं
प्रच्छन्नं बौद्धमुच्यते”– हे देवी! मायावाद असत शास्त्र है|
वह छिपा हुआ नास्तिक बौद्धमत ही है|
इसीलिए चैतन्य महाप्रभु ने कहा है की जो कोई भी निराकारवाद
अथवा मायावाद से प्रेरित शास्त्रों की व्याख्या को सुनता है–
उसकी भक्ति का सर्वनाश हो जाता है–
मायावादी
भाष्य शुनिले हय सर्वनाश
–
चै॰च॰ २/६/१६९
मायावादी भगवान् के दिव्य सच्चिदानंद रूप एवं धाम को सनातन
नहीं मानते, इसलिए वे भगवान् के प्रति अपराधी हो पड़ते हैं और नर्क में
अनेक कष्ट भोगते हैं|
प्रभु
कहें- मायावादी कृष्ण अपराधी|
–
चै॰च॰ २/१७/१२९
पद्मपुराण में तो यहाँ तक कहा गया है की निराकारवादी यदि
कृष्णकथा अथवा हरिनाम संकीर्तन भी करें, तो भी उन के मुख से सुनना नहीं चाहिए–
अवैष्णव
मुखोद्गीर्णनं पूतं हरिकथामृतं|
श्रवणं
नैव कर्तव्यं सर्पोच्छिष्टं यथा पय:||
जैसे दूध पवित्र होने पर भी यदि उसे सर्प छू जाये,
तो वह पीने योग्य नहीं रहता– उसी तरह से पवित्र करने वाली हरिकथा भी किसी अवैष्णव या
निराकारवादी के मुख से कदापि नहीं सुननी चाहिए|