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अध्याय ११ - उपसंहार प्रकाश

|| उपसंहार प्रकाश ||११||
|| राग मालकोंस |||
|*| भुजंग-प्रयात छन्द |*||

परेशं करन्तं न जाने परन्तं || ||विश्राम||

अनुवाद : परेश (परम-ईश्वर) के कार्य पूर्ण रूप से जाने नहीं जाते|| ||विश्राम||

अमाया अकारं|
नमस्ते सकारं|
अमाया हि नामं|
नमस्ते सुनामं|||

अनुवाद : जिनका आकार मायिक नहीं हैऐसे दिव्य साकार रूप गौर-कृष्ण को नमस्कार है| जिनका नाम जड़मायिक नहीं है एवं जो अनेक दिव्य नामों से युक्त हैंऐसे गौर-कृष्ण को नमस्कार है||

प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: मायिक पदार्थों में परस्पर विरोधात्मक तत्त्वों का एक ही समय में समन्यव संभव नहीं होता| कोई व्यक्ति एक ही साथ सुन्दर-कुरूप, धनाढ्य-दरिद्र, दयालु-क्रूर नहीं हो सकता| किन्तु भगवान् की अविचिंत्य महाशक्ति के कारण उनके रूप, लीला, धाम और गुणों में परस्पर विरोधात्मक गुणों का समन्वय बहुत ही सुन्दर रूप से एकसाथ तथा एक ही समय में दृष्टिगोचर होता है| भगवान् मनुष्यरूप में हो कर भी सर्वव्यापक परमेश्वर हैं| भगवान् सदा निष्पक्ष हैं, फिर भी वे भक्तों का पक्ष लेते हैं| भगवान् को भूख-प्यास आदि नहीं लगती, फिर भी वे भक्तों द्वारा प्रदत्त भोग ग्रहण करते हैं| वे सबसे पुरातन-पुरुष (अकाल-पुरुष) होकर भी नवीन से भी नवीनतम नवयौवन पुरुष हैं(पुराणपुरुषं नवयौवनं चब्रह्मसंहिता ३३)| वे सदा निर्भय हैं, फिर भी वे मैय्या यशोदा की डांट से भयभीत रहते हैं| वे अजन्मा हैं, फिर भी वे यशोदा मैय्या के गर्भ से जन्म लेते हैं| वे साधारण जीवों की तरह माया के त्रिगुणों से बंध कर जन्म नहीं लेते हैं| वे मायाधीश हैंमयाध्यक्षेण प्रकृति: सूयते सचराचरम्मेरी अध्यक्षता में ही जड़माया प्रकृति सभी प्राणियों को उत्पन्न करती हैगीता ९/१०|

अजन्मा अनादिं|
शची के सुतादिं|
रहिन्तं उपाधिं|
नम: ते उपाधिं|||

अनुवाद : जिनका कभी जन्म नहीं होता, जो अनादि हो कर भी शची माता के गर्भ से जन्म लेते हैंऐसे गौर-कृष्ण को नमस्कार है| जो (मायिक) उपाधियों से रहित हैंउनकी दिव्य उपाधियों को नमस्कार है||

प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: यद्यपि मैं अज हूँ (जन्म से रहित हूँ), तथा मेरा दिव्य शरीर अव्यय है (वह कभी भी मृत्यु को प्राप्त नहीं होता), तब भी मैं अपनी दिव्य आत्ममाया (योगमाया) का आश्रय लेकर अपने मूल साकार रूप (कृष्णरूप) को इस जगत में प्रकट करता हूँ|- गीता ४/६

अमाया हि धामं|
नमस्ते सुधामं|
अमाया हि भेशं|
नमस्ते सुभेशं|||

अनुवाद : जिनका धाम मायिक नहीं हैऐसे सुन्दर धाम से युक्त गौर-कृष्ण को नमस्कार है| जिनका वेश जड़-माया से युक्त नहीं हैऐसे दिव्य एवं सुन्दर शरीर वाले गौर-कृष्ण को नमस्कार है||

प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: वेदों में कहीं कहीं भगवान् को वेश से रहित बिना हाथ-चरण वाला महानतम-पुरुषकहा गया है
अपाणिपादो जवनो ग्रहीता पश्यत्यचक्षु: सशृणोत्यSकर्ण:|
स वेत्ति वेद्यं न च तस्यास्ति वेत्ता तमाहुररर्ग्यं पुरुषं महान्तं||
जो बिना चरणों के ही विचरण करते हैं, बिना नयनों के देखते हैं, बिना कानों के सुनते हैं, जो सब को जानते हैं, लेकिन जिन्हें कोई भी पूर्णरूप से नहीं जान सकता, वे ही महानतम पुरुषके नाम से कहे गए हैं|– श्वेतश्वेताश्वर उपनिषद ३/९
भगवान् के का शरीर मायिक नहीं है, इसीलिए यहाँ पर भगवान् को बिना हाथों और चरणों का कहा गया है, लेकिन वे निराकार नहीं हैं, साकार हैंइसी बात को सिद्ध करने के लिए फिर तुरंत कहा गया हैवे विचरण करते हैंअत: भगवान् मायिक शरीर से रहित हैं, किन्तु वे दिव्य सच्चिदानंदमय शरीर से विचरण करते हैं, खाते हैं, देखते हैं और सुनते हैं| (सच्चिदानंदरूपाय गौ ब्राह्मण हिताय च)| वे शरीर से रहित निराकार नहीं हैं|

नमस्ते अकालं|
महाकाल कालं|
नमस्ते अकामं|
सुसेवं सुकामं|||

अनुवाद : जो काल के चक्र से बंधे हुए नहीं हैं किन्तु स्वयं काल के भी काल हैंऐसे गौर-कृष्ण को नमस्कार है| जो (मायिक) कामनाओं से रहित हैं तथा जिनको सुन्दर सेवा (कृष्ण-सेवा) की ही सुकामना हैऐसे   गौर-कृष्ण को नमस्कार है||

प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: भगवान् का धाम, जन्म, शरीर आदि काल के आधीन नहीं हैं, लेकिन मायावादी उन्हें काल के अधीन नश्वर तत्त्व मानते हैं| हिरण्यकशिपु, रावण आदि असुर भी आत्मज्ञानी एवं ब्रह्मज्ञानी थे, लेकिन वे विष्णुभक्त नहीं थे, इसीलिए उन्हें असुरकहा जाता है, क्योंकि वे भगवान् के धाम तथा उसकी प्राप्ति को नश्वर मानते थे| जब भगवान् के हिरण्यकशिपु के भाई हिरण्याक्ष को वाराह अवतार धारण करके मार डाला तो हिरण्यकशिपु रोती हुई स्त्रियों को आत्मज्ञान का उपदेश देते हुए स्वयं कहता हैनित्य आत्माव्यय: शुद्धः सर्वगः सर्ववित्पर: (भागवतम ७/२/२२)आत्मा नित्य है, त्रिगुणों से रहित शुद्धतत्त्व है, सर्वत्र विचरण कर सकती है, ज्ञानस्वरूप है तथा माया से रहित है| लेकिन ऐसे आत्मज्ञानी होने पर भी हिरण्यकशिपु असुर है क्योंकी वह वैकुंठ एवं भगवान् को नश्वर मानता था| वह कहता हैकिमन्यै: कालनिर्धूतै: कल्पान्ते वैष्णवादिभि:(भागवतम ७/३/११)कल्प के अंत (प्रलय के समय) में तो वैकुण्ठ आदि लोक भी नष्ट हो जाते हैं, अत: वैकुण्ठ की प्राप्ति में रखा ही क्या है?
इसी तरह से निराकारवादी भी भगवान् के शरीर एवं धाम को नश्वर मानते हैं| इसीलिए ब्रह्माण्ड पुराण में कहा गया है की निराकारवादी एवं भगवान् के द्वारा मारे गए दैत्यइन दोनों को ही श्रीकृष्ण की प्राप्ति नहीं होती, अपितु वे भगवान् के शरीर से निकली हुई निराकार ब्रह्मज्योति में समा जाते हैं| किन्तु वहां पर भी उनका स्वरूप पूर्णरूप से विलीन नहीं होता क्योंकि आत्मा नित्य है:  सिद्धा ब्रह्मसुखे मग्ना दैत्याश्च हारिणा हता:” – ब्रह्माण्ड पुराण|
मायावादी अथवा केवल-अद्वैतवादी भगवान् को बिना रूप, बिना रंग एवं बिना आकार का मानते हैं तथा उनके दिव्य विग्रह में जड़माया के त्रिगुणों का आरोप करते हैं| वे भगवान् को भी साधारण मनुष्यों की तरह जन्मने-मरने वाला मानते हैं| वे कहते हैं की परमात्मा जीवों की तरह योनियों में नहीं आ सकता| किन्तु वे भगवान् की अघट-घटन-पटीयसी अविचिंत्य-शक्ति को नहीं समझ पाते जिसके प्रभाव से भगवान् अजन्मा एवं स्वयंभू होते हुए भी मीन, कूर्म, नृसिंह तथा अपने मूल मनुष्यवत दिव्य कृष्णरूप में प्रकट होते हैं| भगवान् की कृपा चाहने वाले भक्तों को निराकारवादियों का संग दूर से ही त्याग देना चाहिए| यदि निराकारवादी का दर्शन अथवा स्पर्श हो जाए तो पाप के निवारण के लिए सचैल-स्नान (कपड़ों सहित स्नान) करना चाहिए|
श्रीविग्रहे ये न माने सेइ तपाषंडी| अदृश्य-अस्पृश्य सेइ हय यमदंडी||
अर्थात - निराकारवादी भगवान् के साकार रूप का खंडन करते रहते हैं, इसलिए उन्हें पाखण्डी जान कर उनका न तो दर्शन करना चाहिए और न ही स्पर्श करना चाहिए| ये सभी पाखण्डी अंत समय में यमराज के द्वारा किये गए अपराधों के लिए नरकों में दण्डित किये जाते हैं|– चै॰च॰ २/६/१६७

सुनामं प्रचारं|
कृपा नाहि पारं|
सदा निर्विकारं|
सुसत्त्वं विकारं|||

अनुवाद : जो कृष्ण नाम का प्रचार करते हैं एवं जिनकी कृपा का कोई पारावार ही नहीं हैऐसे गौर-कृष्ण को नमस्कार है| जो सदैव निर्विकारी हैं, फिर भी जिनके शरीर में अष्टसात्त्विक विकार उत्पन्न होते रहते हैंऐसे गौर-कृष्ण को नमस्कार है||

प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: भगवान् सदैव निर्विकारी-तत्त्व हैं| उनकी दिव्य देह में किसी भी प्रकार के जड़-मायिक-विकार (मृत्यु, जन्म, वृद्धावस्था इत्यादि) विकार उत्पान नहीं होते| किन्तु ऐसा होने पर भी भगवान् गौर-सुंदर की दिव्य देह में दिव्य अष्ट-सात्त्विक विकार (कंप, स्वेद इत्यादि) उत्पन्न होते हैं| इस प्रकार के विकार भगवत-तत्त्व में चिद-वैचित्र्य का प्रकाश करते हैं|

अकृष्णं हि कृष्णं|
मुकुन्दं हि तृष्णं|
महाभाव धारं|
कृपालं अपारं|||

अनुवाद : जो अकृष्ण रूप में स्वयं कृष्ण हैं (अर्थात सांवले रंग के न होने पर भी स्वयं श्यामसुंदर हैं) तथा जिन्हें केवल मुकंद को प्राप्त करने की तृष्णा है, जो राधारानी के महाभाव को ह्रदय में धारण करते हैं तथा अपार कृपा के समुद्र हैंऐसे गौर-कृष्ण को नमस्कार है||

प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: श्रीभगवान् आप्त-काम हैं| ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है जो उन्हें अप्राप्त हो अथवा जिसको प्राप्त करने की कामना भगवान् में हो, क्योंकि सब कुछ उन्हीं की शक्ति का विस्तार है| ऐसा होने पर भी भगवान् गौर-सुंदर को श्रीमती राधारानी के मनोअभीष्ट भाव-स्वरूप श्रीकृष्ण के दर्शन की कामना रहती है| इस प्रकार की कामना भगवान् के लीला-विलास में रस-वैचित्र्य का पोषण करती है| यह उस प्रकार की सांसारिक कामना कदापि नहीं हैजिसके वशीभूत हो कर संसार के जीव जन्म-मरण के चक्र में पड़े रहते हैं| अत: भगवान् के इस प्रकार की लीला-विलास में केवल कोई दुर्बुद्धि जीव ही जड़ता का आरोप कर सकता है| साथ ही साथ यह समझना भी आवश्यक है की भगवान् गौर-सुंदर कृपा के समुद्र हैं तथापि उनकी कृपा अकैतव-युक्त अर्थात छल-धर्म से सर्वथा रहित है| यह कृपा उस प्रकार की कृपा नहीं है, जो मायाबद्ध-जीव संसार में दूसरे मायाबद्ध जीवों के कैतव-युक्त हित के लिए धर्म-अर्थ-काम इत्यादि त्रिवर्ग की पूर्ति के लिए करते हैं| मुक्त-महापुरुष भी अन्य मुमुक्षु-जन को कृपापूर्वक जिस कैवल्य-पद का उपदेश प्रदान करते हैंऐसी कृष्ण-सेवोन्मुखता रूपी स्वधर्म को आच्छादित करने वाले अन्याभिलाष-युक्त धर्म का उपदेश प्रदान करने की कपट-कृपा का आरोप वैष्णवजन गौरांग महाप्रभु पर कदापि नहीं करते| जो इस प्रकार के दुस्साहस में प्रवृत्त होते हैंवे अवश्य ही धर्म-ध्वजी पाखण्डी हैं|          

गुणागार धारं|
गभीरं अपारं|
अखण्डं अगारं|
अकिन्चन् दतारं|||

अनुवाद : जो सभी सद्गुणों के समुद्र हैं तथा जो गंभीर स्वभाव के हैं, जो अखंड-अनंत हो कर भी नराकृति-रूप में  परब्रह्म परमेश्वर हैं, जो स्वयं अकिन्चन-वेश (संन्यासी-वेश) धारण करके भी सब कुछ देने वाले दातार हैंऐसे गौर-कृष्ण को नमस्कार है||

प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: भगवान् गौर-सुन्दर कृष्ण से अभिन्न हैं| अत: वे सहस्त्र-कोटि धेनुओं एवं लक्ष्मियों का पालन करने में सक्षम हैं (लक्ष्मीसहस्त्र-सुरभीरभिपालयन्तं ब्रह्मसंहिता)| किन्तु ऐसा होने पर भी भगवान् गौर-सुन्दर ने संन्यासी-धर्म का आदर करते हुए दारिद्र्य-व्रतअथवा अकिंचनता को अंगीकार किया| किन्तु इस रूप में भी वे अपने– “अनंत-कोटि-ब्रह्माण्ड-नायककी उपाधि से कदापि च्युत नहीं होते| यही भगवत-तत्त्व की महानता का परिचायक है|

सुतत्त्वं वितत्त्वं|
अनाधीन तत्त्वं|
प्रणामं प्रणामं|
प्रणामं  प्रणामं|||

अनुवाद : जिनमें सभी सुन्दर तत्त्व एवं उन तत्त्वों से विपरीत तत्त्व भी एकसाथ शोभायमान होते हैं, तथापि जो समस्त तत्त्वों से सम्पूर्ण रूप से स्वतन्त्र होने के कारण उन तत्त्वों के आधीन नहीं हैं, अर्थात परतत्त्व-स्वरूप हैंऐसे गौर-सुन्दर को बारम्बार प्रणाम है||

प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: भगवत-तत्त्व की महानता तो देखिये सभी विपरीत धर्म उनमें एक साथ विराजमान होते हैं तथा इतना होने पर भी वे परस्पर विरोधी-धर्म भगवत-तत्त्व के अलंकार-स्वरूप हो कर शोभायमान होते हैं| किन्तु ऐसा होने पर भी भगवान् सभी तत्त्वों से सर्वथा परे – “अद्वय-ज्ञान-परतत्त्व-स्वरूपहैं| ऐसे गौरांग-महाप्रभु को बारम्बार प्रणाम हैं|

|| राग देस |||
|*| दोहरा छन्द |*||

रूप न रंग न रेख किछु
जिम प्रकाश कहिलान |
सो सूरज साकार ते
उपजै यह जग जान ||| ||विश्राम||

अनुवाद : प्रकाश के बारे में ऐसा कहा जाता है की इस का न तो कोई रूप है, न ही कोई रेखा है और न हि कोई एक निश्चित रंग है - किन्तु इस प्रकार का निराकार होने पर भी प्रकाश का उद्गम स्थान सूर्य मंडल है जो की साकार रूप है - इस बात को सभी जानते हैं||| ||विश्राम||

रूप न रंग न रेख किछु
निराकार जो ब्रह्म |
सो उपजै साकार ते
कृष्ण रूप परब्रह्म |||

अनुवाद : इसी प्रकार से जिस ब्रह्म को रूप, रंग एवं रेखाओं से विहीन निराकार कहा जाता है- उसका उद्गम स्थल भी साकार परब्रह्म कृष्ण हैं|||

प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: भगवान् ने गीता १४.२७ में स्पष्ट कहा है – “ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहं” – “निराकार ब्रह्म मुझ से प्रतिष्ठित है” |

मूल शबद आकार है
निराकार है नाय |
निर लागे आकार ते
तबहि शबद बन पाय |||

अनुवाद : "आकार" ही मूल शब्द है- "निराकार" मूल शब्द नहीं है| "निर" लगाने के लिए सर्वप्रथम "आकार" को स्वीकार करना पड़ेगा तभी तो  "निराकार" बनेगा| केवल "निर" शब्द से निराकार संस्थापित नहीं हो पाता| अत: निराकार साकार पर टिका हुआ है|||

मूल रूप साकार है
निराकार है पक्ष |
सदगुरु ऐसा ज्ञान दे
वेद-शास्त्र में दक्ष |||

अनुवाद : परब्रह्म तो मूल रूप से ही साकार है- निराकार उस साकार रूप का केवल एक पक्ष है| केवल वेद-शास्त्र में दक्ष किसी सदगुरु से ही ऐसा निर्मल ज्ञान प्राप्त हो सकता है|||

प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: शुक्ल-यजुर्वेद के ईशोपनिषद १५ में कहा गया है
हिरण्यमयेन् पात्रेण सत्यस्यापिहितम् मुखं | तत्त्त्वं पूषन्नSपावृणु सत्यधर्माय दृश्यते ||
परब्रह्म का मुखारविंद हिरण्यमय पात्र (निराकार हिरण्यमयी ब्रह्मज्योति) से आविष्ट है| हे अन्न प्रदान करके सब का पालन करने वाले पूषन्न-स्वरूप परब्रह्म, आप इस हिरण्यमयी ज्योति को हटा कर अपने मुखारविंद का दर्शन उन भक्तों को दीजिये जो की सत्यधर्म (शुद्ध-भगवद्भक्ति) में स्थित हैं

निराकार वो है सदा
व्यक्ति-भाव को लेत|
बहुत लोग यह कहत हैं
मन्दबुद्धि के हेत|||

अनुवाद : बहुत से मन्दबुद्धि लोग ऐसा कहते हैं की ईश्वर सदा से ही निराकार है| वही निराकार ही यदा-कदा व्यक्ति-भाव ले कर के मनुष्य रूप में प्रकट होता है|||

मन्दबुद्धि नहि जानते
परम भाव साकार |
अव्यय अविनाशी सदा
सर्वोत्तम दातार |||

अनुवाद : वे मन्दबुद्धि लोग भगवान् के साकार रूप के इस परम भाव को नहीं जानते की यही साकार रूप परमेश्वर ही अव्यय, अविनाशी (आदि-अंत से रहित) तथा (निराकार ब्रह्म एवं जगत-व्यापी परमात्म स्वरूपों से भी) सर्वोत्तम रूप है|||

प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: गीता ७.२४ में भगवान् कहते हैं
अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः | परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम् ||
परमेश्वर मूल रूप से अव्यक्त (निराकार) है तथा वही अव्यक्त ही बाद में व्यक्ति-भाव से आपन्न होता है (अर्थात साकार कृष्ण रूप लेता है) ऐसा बहुत से मंदबुद्धि लोग मानते हैं| वे मंदबुद्धि लोग मुझ साकार रूप परब्रह्म के अव्यय एवं सर्वोत्तम परम-भाव को नहीं जानते |
कृष्ण-रूप हि समग्र है
तिसमें सब मिल जाय |
सब रूपन को बीज है
इसमें संशय नाय |||

अनुवाद : नराकृति-परब्रह्म कृष्ण रूप ही भगवतत्त्व के समग्र-सम्पूर्ण-रूप हैं - इस रूप में अन्य सब भगवद्रूप सम्मिलित हैं - इसलिए यह रूप अन्य सब भगवद्रूपों का बीज रूप है- इस में तनिक भी संशय नहीं है|||

प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: गीता ७.१ में भगवान् ने स्पष्ट कहा है– “असंशयं समग्रं माम्“–कृष्ण स्वयं ही समग्र-रूप हैंइस का बोध नि:संशय हो कर किया जा सकता है|

निराकार सब ही कहें
पर न जानैं भेद |
निराकार इक पक्ष है
गावैं गीता वेद |||

अनुवाद : प्रायः सभी लोग भगवतत्त्व को निराकारबतलाते हैं किन्तु निराकार का भेद किसी ने नहीं जाना| गीता एवं वेद- दोनों ही इस बात का उद्घोष करते हैं की निराकार भगवतत्त्व का केवल एक पक्ष मात्र है- समग्र-तत्त्व नहीं |||

|| राग रागेश्री |||
|*| सिद्धांत-गीत |*||

तत्त्व को पा जाएगा
दशमूल के सिद्धांत से |
सब समझ में आएगा
दशमूल के सिद्धांत से||१| ||विश्राम||

अनुवाद : दशमूल सिद्धांत को समझने वाला व्यक्ति तत्त्व ज्ञान को प्राप्त कर लेता है||१| || विश्राम ||

ये प्रथम सिद्धांत है कि
वेद ही प्रमाण है |
वेद और पुराण आदि
शब्द-ब्रह्म महान हैं ||२|

ये अनादि-अपौरुषेय
सत्य हैं ये सर्वदा |
जो इन्हें नहीं मानता
वो नास्तिक हैं सर्वदा ||३|

सत्य को है जानना तो
जानिये वेदांत से |
सब समझ में आएगा
दशमूल के सिद्धांत से ||४||

अनुवाद : पहला सिद्धांत यह है की वेद (वेद एवं वेदानुवर्ती शास्त्र जैसे वेदांग, उपनिषद्, पुराण आदि सभी प्रमाणिक शास्त्र) ही एकमात्र ऐसे ग्रन्थ हैं जो की सत्य रूप में शब्द-ब्रह्म हैं| ये सभी हि अनादि तथा अपौरुषेय (अर्थात जो किसी व्यक्ति विशेष की रचना नहीं हैं) हैं| जो वेदों के अपौरुषेयत्त्व एवं अनादित्व को स्वीकार नहीं करता, उसे "नास्तिक" मानना चाहिए (चाहे वह ईश्वर में विश्वास ही क्यों न रखता हो) | जो पूर्ण-सत्य परब्रह्म परमात्मा का यथार्थ ज्ञान प्राप्त करना चाहता है उसे वेद एवं वेदानुवर्ती प्रमाणिक शास्त्र का ही अध्ययन करना चाहिए|||

प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: : केवल ईश्वर की सत्ता को मानने मात्र से किसी को आस्तिकनहीं माना जा सकता है क्योंकि वेद स्वयं भगवान् के समान नित्य हैं तथा यह ज्ञान स्वयं भगवान् हरि ही सृष्टि के आदि में ब्रह्मा जी के समक्ष प्रकट करते हैं अत: वेद की अपौरुषेयता को स्वीकार करने वाला ही वास्तविक रूप में आस्तिककहा जाता है| यदि कोई वेद के अपौरुषेयत्त्व को स्वीकार न करके अपना मनघडंत मत प्रचार करता है तो अर्द्ध-कुक्कुटी-न्याय (आधी मुर्गी वाली कहानी) घटित होने के कारण वह अवश्य नास्तिक अथवा अर्द्ध-नास्तिक ही माना जाएगा, भले ही वह ईश्वर की सत्ता को स्वीकार ही क्यूँ न करता हो| सिद्धांत दर्पण १/१ में श्रील बलदेव विद्याभूषण प्रभु कहते हैं– “वेदं तद्वाच्यं परेषन्च दुर्धीयो नास्तिका ना मन्यते| केचिच्च आस्तिकाभास: सम्श्रयंती अर्धकुक्कुट्टीयंअर्थात मन्दबुद्धि लोग वेद के अपौरुषेयत्त्व पर संशय करते हैंऐसे लोग नास्तिक कहलाते हैं| उनमें कुछ लोग कहते हैं की हम ईश्वर में तो विशवास करते हैं किन्तु वेदों पर विशवास नहीं करते वे लोग वास्तव में आस्तिकाभास (ऊपर से केवल आस्तिक दिखने वाले) होते हैं लेकिन वस्तुतः नास्तिक ही होते हैं|” इसमें भी जो वेदों को तो स्वीकार करते हैं किन्तु वेदानुवर्ती पुराण-समूह का खंडन करते हैंवे सब भी नास्तिकअथवा पाखण्ड-मतको मानने वाले कहलाते हैं| दुर्भायवश कलियुग के प्रभाव के कारण आजकल ऐसे अनेक पाखण्ड-पंथ भारत में देखे जाते हैं| नास्तिकता की इस परिभाषा के अनुसार इस्लाम, यहूदी, ईसाई, इत्यादि म्लेच्छ-प्रिय पंथ, बौद्ध, जैन इत्यादि पूर्ण नास्तिक-मत एवं निरंकारी, सिख, दादूपंथी, राधा-स्वामी, कबीरपंथी, अघोरी, नागे-बाबा, आर्य-समाजी, ब्रह्मकुमारी इत्यादि आस्तिकाभास-मतसभी कपोल-कल्पित पंथ हैं| यह सभी ही किसी काल-विशेष, व्यक्ति-विशेष एवं परिस्थिति विशेष में उत्पन्न होते हैं और वैसे ही नष्ट हो जाते हैं| केवल वेद के द्वारा प्रतिपादित धर्म सनातन हैइस लिए वेद-प्रतिपाद्य धर्म को सनातन-धर्मकहा जाता है|

दूसरा सिद्धांत है कि
कृष्ण ही परमेश हैं |
देवों के आदि हैं वे
सर्वेश हैं अखिलेश हैं ||५|

ब्रह्म के परमात्मा के
मूल कारण हैं सदा |
कारणों के मूल कारण
सर्वकारण सर्वदा ||६|

वेद के प्रतिपाद्य हैं
साकार हैं चिदाङ्ग से |
सब समझ में आएगा
दशमूल के सिद्धांत से ||||

अनुवाद : द्वितीय सिद्धांत है की सभी देवों में कृष्ण ही सर्वोत्तम देव हैं क्योंकि वे देवताओं के भी आदि कारण हैं | वे ही एकमात्र सब के ईश्वर हैं| वे निराकार ब्रह्म एवं परमात्मा के भी मूल-कारण एवं समस्त कारणों के मूल कारण हैं| वे साकार रूप हैं एवं उनका रूप चिन्मय है- जड़ नहीं| वेद के एकमात्र प्रतिपाद्य विषय वे ही हैं- अन्य कोई नहीं|||

तीसरा सिद्धांत है हरि
सर्व-शक्तिमान हैं |
चित, तटस्था, बहिरंगा
शक्ति के आधान हैं ||८|

चिज्जीव-जड़ आदि इन
तीनों का ही ये कार्य है |
अघट-घटन-पटीयसी से
सृष्टि में सब धार्य है ||९|

घट नहीं सकता है वो
घट जाए शक्ति-कान्त से |
सब समझ में आएगा
दशमूल के सिद्धांत से ||१०||

अनुवाद : तीसरा सिद्धांत है की कृष्ण सर्व-शक्तिमान अर्थात समस्त शक्तियों के एक मात्र स्वामी हैं| उनकी प्रमुख तीन शक्तियां इस प्रकार से हैंचिच्छक्ति (चित्शक्ति अथवा स्वरूप-शक्ति), तटस्था-शक्ति (जैव-शक्ति), बहिरंगा (माया) शक्ति| चिज्जगत (भगवद्धाम), जीव-जगत (जीव) एवं जड़-जगत (संसार) इन तीन शक्तियों का कार्य है| उनकी शक्ति को "अघट-घटन-पटीयसी" कहा जाता है क्योंकि जो कभी भी घट नहीं सकता उसे भी क्षण मात्र में घटा देने में यह शक्ति "पटु" अर्थात "दक्ष" है|||

चौथा ये सिद्धांत है कि
कृष्ण रस-आगार हैं |
रस स्वयं हैं रस-रसिक हैं
रस के पारावार हैं ||११|

हैं यही रस-शिरोमणि
रस-राज रस के सार हैं |
जिन रसों का पान करते
हैं वे पञ्च प्रकार हैं ||१२|

दास्य, सख्य, वात्सल्य
और मधुर, शान्त से |
सब समझ में आएगा
दशमूल के सिद्धांत से ||१३||

अनुवाद : चौथा सिद्धांत यह है की कृष्ण रस के समुद्र हैं| वे स्वयं रस के मूर्तिमान स्वरूप हैं| वे रस-शिरोमणि, रसिक-शेखर एवं सभी दिव्य रसों के सार-स्वरूप हैं| भगवान् मुख्यतः पञ्च रसों का पान करते हैं| यह रस हैं - दास्य रस, सख्य रस, वात्सल्य रस, मधुर रस एवं शांत रस|   

पांचवां सिद्धांत है कि
जीव हरि के अंश हैं |
तटस्था शक्ति से प्रकटित
चिद्स्फुलिङ्ग चिद्वंश हैं ||१४|

अंश हैं ये इसलिए
अणु-धर्मता के वश्य हैं |
चिद्वणु हैं इसलिए
जड़-द्रव्य से नहीं नश्य हैं ||१५|

कुछ हैं माया-वश अशांत
कुछ हैं मुक्त-शान्त से |
सब समझ में आएगा
दशमूल के सिद्धांत से ||१६||

अनुवाद : पांचवां सिद्धांत है की जीव हरि के अंश हैं| वे उनकी तटस्था नामक शक्ति का कार्य हैं एवं चिद्वस्तु भगवान् के अंश होने से वे जीव भी चिद्स्वरूप हैं| वे अंशी के अंश हैं इसलिए स्फुलिंग रूप हैं तथा अणु-धर्म से नित्य युक्त हैं| चिद्वाणु होने के कारण वे जड़ पदार्थों के द्वारा कदापि नष्ट नहीं होते| इनमें से कुछ जीव मायावश हैं जो अशांत रहते हैं और कुछ वे हैं जो मुक्त हैं- वे सदैव शांत रहते हैं|  

ये छठा सिद्धांत है
जो जीव मायाधीन हैं |
वे अनादि-कर्मवश जड़-
कर्म में ही प्रवीण हैं ||१७|

कृष्ण से सम्बन्ध उनको
नहीं कदापि स्फुरित हुआ |
नाम रस से चित्त उनका
नहीं कदापि द्रवित हुआ ||१८|

फिरते हैं संसार में चिर-
काल ही दिग्भ्रांत से |
सब समझ में आएगा
दशमूल के सिद्धांत से ||१९||

अनुवाद : छठा सिद्धांत है की जो जीव माया के आधीन हो कर संसार में पड़े हुए हैं, वे अनादि काल से ही अनादि-कर्म के वशीभूत हो कर इस बद्ध अवस्था में पड़े हुए हैं| उन्हें अभी तक कृष्ण से अपना सम्बन्ध ज्ञान नहीं हुआ तथा न ही उनका चित्त नाम रस से द्रवित हुआ है| वे अनादि काल से ही इस संसार में भ्रमित चित्त होकर गिरे हुए हैं|

प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: : ऐसा नहीं है की बद्ध जीवों को पहले सम्बन्ध ज्ञान था और बाद में विस्मृत हुआ| बद्ध जीवों को अभी तक सम्बन्ध ज्ञान का स्फुरण हुआ ही नहीं| वह स्फुरण जीव को केवल भक्ति करने के बाद ही होता है| ऐसा भी नहीं है की जीव का संसार में पतन किसी विशेष काल अथवा विशेष परिस्थितियों में हुआ| बद्ध जीव सदा से ही संसार में गिरा हुआ है| यही श्रील जीव गोस्वामीपाद का मत है| आजकल बहुत से लोग इस नवीन मत का प्रचार करते हैं की जीव अपने प्राकट्य-काल में तटस्थ-क्षेत्र में स्थित होकर संसार का वरण करते हैं, तबसे ही वह संसार में पतित हुआ| यह मूल गौड़ीय मत नहीं है|

सातवाँ सिद्धांत है कुछ
जीव माया-मुक्त हैं |
चिज्जगत में विराजते
हरि-प्रेम से वे युक्त हैं ||२०|

इनमें कुछ हैं नित्य सिद्ध
और कुछ कृपा से सिद्ध हैं|
कुछ ने की है साधना निज-
भक्ति से वे सिद्ध हैं ||२१|

सेवा के सुख से आनंदित
रहते हैं बड़े शान्त से |
सब समझ में आएगा
दशमूल के सिद्धांत से ||२२||

अनुवाद : सातवां सिद्धांत है की कुछ जीव माया से मुक्त हैं| वे भगवान् के नित्य धाम में विराजते हैं| इनमें से कुछ तो नित्य सिद्ध है जो की अनादि काल से भगवान् के धाम में ही हैं- अर्थात भगवान् के पार्षद अथवा परिकर| दूसरे जीव वे हैं जो पहले संसार में गिरे हुए थे किन्तु अब उन्होंने नित्य धाम की प्राप्ति कर ली है| ऐसे या तो कृपा-सिद्ध हैं (उनका कोई विशेष साधन भजन नहीं था, केवल भगवान् अथवा वैष्णवों की विशेष कृपा के कारण उन्हें धाम प्राप्ति हुई)| दूसरे वे हैं जिन्होंने ने संसार में अनन्य भक्ति की और सिद्ध हो कर भगवद्धाम की प्राप्ति की | वे सब सदा ही धाम में सुख से विराजते हैं|

प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: नित्य-सिद्ध अर्थात भगवान् के पार्षदों का न तो पहले कभी पतन हुआ और न ही आगे कभी होगा| कृपा-सिद्ध एवं साधन-सिद्ध पहले भले ही संसार में थे किन्तु अब धाम प्राप्ति होने के पश्चात उनका कभी भी पतन नहीं हो सकता| भगवदेच्छा से वे लीला में सहयोग करने हेतु यदा-कदा अवतरित अवश्य हो सकते हैं| दुर्भाग्यवश आज कल कई लोग इस नवीन मत का प्रचार कर रहे हैं की जीव अनादि काल से गोलोक में ही स्थित है किन्तु भगवान् से विद्वेष करने के कारण वह संसार में पतित हो जाता है| मूल वैष्णव मत के विरुद्ध तथा गीता के विरुद्ध इस प्रकार के अत्यंत कुत्सित एवं कपोल-कल्पित मतों का प्रचार करने वाले संसार में सदा ही पतित रहेंगेइस में संदेह नहीं है| उनके इस कुत्सित मत का खंडन भगवान् ने स्वयं गीता के श्लोक १५.६ में किया है|

आठवां सिद्धांत है जो
जीव बद्ध या मुक्त हैं |
वे विभु होते नहीं अणु-
धर्म से नित-युक्त हैं ||२३|

मुक्त होने पर भी वे
बस जीव रहते हैं सदा |
परब्रह्म से मिल के वो पर-
-ब्रह्म नहीं होते कदा ||२४|

स्वरूपत: वे भिन्न और
अभिन्न हैं श्रीकांत से |
सब समझ में आएगा
दशमूल के सिद्धांत से ||२५||

अनुवाद : आठवां सिद्धांत है की जितने भी जीव हैं, चाहे वे बद्ध अवस्था में हैं अथवा मुक्त अवस्था में हैंवे कभी भी अणु-धर्म का परित्याग नहीं करते अर्थात वे ईश्वर के समान कभी भी विभु नहीं होते| वे भले ही मुक्त भी हो जाएं तब भी जीव ही रहते हैं| परब्रह्म से मिलकर वे कदापि परब्रह्म स्वरूप नहीं होते| प्रत्येक अवस्था में वे ईश्वर से एकसाथ भिन्न एवं अभिन्न रहते हैं|

प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: क्योकि जीव का स्वरूप नित्य है, अतः मुक्त होने के पश्चात उनका स्वरूप खंडित नहीं होता अत: वे परब्रह्म से मिलकर परब्रह्म नहीं होते और न ही हो सकते हैं| भ्रमपूर्वक बहुत से लोग यह उदाहरण देते हैं जैसे ज्योति में ज्योति समा जाती है वैसे ही मोक्ष प्राप्ति के पश्चात आत्मा परब्रह्म में समा कर परब्रह्म ही हो जाती है| गीता के श्लोक २.१२ में भगवान् स्वयं उनके इस कुत्सित मत का खंडन करते हैं|

नौवां यही सिद्धांत है शुद्ध-
भक्ति ही अभिधेय है |
वेदों के द्वारा प्रमाणित
उच्चतम ये प्रमेय है ||२६|

अन्य अभिलाषिता-शून्य
ज्ञान-कर्म-अनावृतम् |
भाव में अनुकूल है श्री-
कृष्ण के अनुशीलनम् ||२७|

उच्च है ये कर्म-ज्ञान-
मिश्र के तुलनांत से |
सब समझ में आएगा
दशमूल के सिद्धांत से ||३०||

अनुवाद : नौवां सिद्धांत यह है की शुद्ध भक्ति ही अभिधेय (साधन-स्वरूप) है तथा वेदों के द्वारा यह कृष्णप्राप्ति का सर्वोत्तम उपाय प्रमाणित है| यह शुद्ध भक्ति कृष्णसेवा-इतर कामनाओं से रहित, ज्ञान-कर्म आदि के द्वारा अनाच्छादित, अनुकूल-भाव लिए हुए तथा एकमात्र कृष्ण की ही प्रसन्नता के लिए की जाती है| इस प्रकार की भक्ति कर्म-मिश्रित-प्रधानीभूत भक्ति, ज्ञान-मिश्रित-प्रधानीभूत भक्ति अथवा कर्म-ज्ञान-मिश्रित-प्रधानीभूत भक्ति की तुलना से अत्यंत उत्तम है|

दसवां ये सिद्धांत है हरि-
प्रेम ही बस ध्येय है |
पुरुषार्थ पञ्चम यही शुद्ध-
भक्ति से ही विधेय है ||३१|

धर्म, अर्थ, काम, मोक्षादि
जो भी पुरुषार्थ है |
कृष्ण इनके वश नहीं हैं
प्रेम ही परमार्थ है ||३२|

ये ही भक्ति का प्रयोजन
है श्रीराधाकान्त से |
सब समझ में आएगा
दशमूल के सिद्धांत से ||३३||

अनुवाद : दसवां सिद्धांत यह है की कृष्ण प्रेम ही शुद्धभक्ति का प्रयोजन है| यह ही पंचम पुरुषार्थ स्वरूप है| अन्य धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष आदि जो चतुर्वर्ग है- कृष्ण इनके वशीभूत नहीं होते| कृष्ण प्रेम के वशीभूत होते हैं|

दशमूल सिद्धांत ये गौरांङ्ग
ने हमको दिया |
श्रीजीव गोस्वामी ने इसे
उजागर कर दिया ||३४|

जीवन सार्थक कर दिया
दशमूल के सिद्धांत से |
तत्त्व को मैं पा गया
दशमूल के सिद्धांत से ||३५|

सब समझ में आ गया
दशमूल के सिद्धांत से ||
सब समझ में आ गया
दशमूल के सिद्धांत से ||३६||

अनुवाद : यह वेदों के सार-स्वरूप जो दशमूल सिद्धांत है, यह गौरांग महाप्रभु ने हमें दिया है| इसको जानने वाले का जीवन सार्थक हो जाता है तथा वह तत्त्व ज्ञान प्राप्त कर लेता है| इसको जानने मात्र से वेदों का रहस्य समझ में आने लगता है|

|| राग रागेश्री |||
|*| दोहरा छन्द |*||

जन्म कर्म सब दिव्य हैं
गूढ़ तत्त्व जे जान|
अन्त हरि घर जायेंगे
पुनि भव में नहि आन||| ||विश्राम||

अनुवाद : भगवान् गौर-कृष्ण का जन्म तथा उनके कर्म (नाम, रूप, धाम, गुण, लीला इत्यादि) सभी ही दिव्य हैंजो इस गूढ़ तत्त्व को जान लेते हैंवे महापुरुष शरीर को छोड़ने के उपरान्त गौर-कृष्ण के दिव्य धाम में सदा-सदा के लिए निवास करते हैंपुन: भव-सागर में कदापि नहीं गिरते|| || विश्राम ||

प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: उपर्युक्त दोहरा श्रीमद्भागवद्गीता (४/९) के निम्नलिखित श्लोक का अनुवाद मात्र है
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वत:|
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोSर्जुन||
हे अर्जुन! जो व्यक्ति मेरे जन्म (नरवत-प्राकट्य) तथा मेरे कर्म (नरवत-लीला) की दिव्यता को तत्त्व से जान लेता हैऐसा व्यक्ति अपनी देह को परित्याग करने के बाद पुनर्जन्म ग्रहण नहीं करता, अपितु मेरे ही परम धाम को प्राप्त करता है|
भगवान् गौरकृष्ण स्वयं नराकृति-परब्रह्म हैंअर्थात वे केवल देखने में साधारण मनुष्य रूप के लगते हैंकिन्तु वे साधारण मनुष्य कदापि नहीं हैं| फिर भी पाखण्डी एवं निराकारवादी उन्हें साधारण मनुष्य मानते हैंयह उन पाखण्डियों का ढीठपन नहीं तो और क्या है?

|*| कुण्डलिया छन्द |*||

सूरज जो आराधि हैं
पर खण्डैं आकार|
कृष्णदास सोहि जन को
बिरथा यह व्यौपार|||

अनुवाद : जो व्यक्ति सूर्य की आराधना तो करता हैलेकिन उनके आकार का खंडन करता है–‘कृष्णदासकहते हैं की ऐसे व्यक्ति की आराधना व्यर्थ ही है||

बिरथा यह व्यौपार
जोहि जन हरि आराधैं|
पर उदार-हरिरूप
गौर सेवैं नहि साधैं|||

अनुवाद : उसी प्रकार से जो श्यामसुन्दर कृष्ण की तो आराधना करते हैं, पर उन्हीं के ही परम उदार रूप गौरसुन्दर महाप्रभु का भजन नहीं करतेउन लोगों के द्वारा किया हुआ कृष्ण भजन भी वृथा है||

कृष्ण माधुरी रूप
ज्यों सूरज अति हि दूरज|
गौर उदार सरूप
ज्यों उपजै रश्मि सूरज|||

अनुवाद : जैसे सूर्य-मंडल अत्यंत दूर स्थित हैऐसे ही कृष्ण माधुर्य अवतार होने के कारण इतनी सरलता तथा सहजता से प्राप्त नहीं होते|किन्तु जिस प्रकार से अत्यंत दूर स्थित होने पर भी सूर्य की किरणे उसके ताप तथा प्रकाश को यहाँ तक पहुंचा देती हैंउसी प्रकार से गौरांग महाप्रभु की कृपा और उदारता के कारण स्वयं कृष्ण ही गौर-रूप में सब को सरलता तथा सहजता से सुलभ हो जाते हैं||

प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: श्रील सार्वभौम भट्टाचार्य श्रीचैतन्यशतक (८३-८४) में लिखते हैं
अनन्यचेता हरिमूर्ति सेवा करोति नित्यं यदि धर्मनिष्ठ:| तथापि धन्यो न ही तत्त्ववेत्ता गौरांगचन्द्रे विमुखो यदि स्यात्||
यदि स्यात् वैष्णवेप्रीति सदा कीर्तनलम्पटौ|
गौरांगचन्द्रे विमुखौ न वै भागवतोSपि सौ||
यदि कोई कृष्णभक्त नित्य नियम पूर्वक एवं अनन्यचित्त से श्रीकृष्ण के विग्रह की सेवा करे, भक्तिधर्म में पूर्णतः निष्ठित हो, किन्तु यदि वह गौरांगचन्द्र की भक्ति से विमुख है, तो वह व्यक्ति न तो कृष्णतत्त्ववेत्ता है और न ही उस का जीवन धन्य है| यदि कोई व्यक्ति सभी वैष्णवों में अनन्यप्रीति रखे और उनके सेवा में रत रहे, हरिनाम-संकीर्तन का भी बहुत प्रेमी हो, फिर भी यदि वह गौरांगचन्द्र उनकी भक्ति से विमुख है, तो वह व्यक्ति कदापि भागवतकहलाने योग्य नहीं है|

|| श्री राग |||
|*| कुण्डलिया छन्द |*||

जीवन गया शराब में
खाए खूब कबाब |
फुर्सत नहीं शबाब से
मर के मिले अजाब ||| विश्राम ||
मर के मिले अजाब
दलन यमराज करेगा |
सुख भी यह स्थिर नाहिं
ह्रदय ग्लानि से भरेगा |||
ज़रा गौर से सेव
गौर-हरि नाम रसायन |
जप ले निताइ-नाम
सुधर जाएगा जीवन |||

अनुवाद : जीवन शराब के नशे में गुज़र गया और मांस से युक्त कबाब भी खूब खाए| परस्त्री-परपुरुष संग भी किया; अंत में अवश्य नरकों की प्राप्ति होगी|||विश्राम|| नरक में यमराज तुम्हारा दलन करेंगे| इन वस्तुओं से जनित सुख भी क्षणिक है और भोगने के बाद उल्टा ह्रदय में ग्लानि ही होती है- सुख नहीं होता||| अभी भी चेत कर गौर-हरि एवं निताइ-नाम रूपी रसायन का सेवन करोगे तो जीवन सुधर सकता है|||  

 || राग मालकोंस |||
|*| मनमोहन छन्द |*||

काज कठिन पर परम धरम |
जो करिहैं सो पाव परम|| ||विश्राम||

अनुवाद : यह कार्य यद्यपि कठिन है, किन्तु जो इसको करते हैं वे अवश्य परमपद को प्राप्त करते हैं|१| ||विश्राम||

कथा भागवत प्रेम सदन|
वैष्णव जन को जीवन धन|
कृष्ण कथा जो दान करन|
सो वैष्णव को सदा नमन|||

अनुवाद : श्रीमद्भागवतम् की कथा तो मानो कृष्णप्रेम का सदन ही है|यह वैष्णवों का जीवन धन है| जो (प्रमुखत: भागवत-सप्ताह आदि के द्वारा) इस कृष्णकथा का दान दूसरों को करते हैंउन्हें वैष्णव जान कर हम उन्हें प्रणाम करते हैं||

कृष्ण कथा सब जीव बुझल|
सो प्रचार अरु गान सरल|
गौर कथा रस प्रेम तरल|
सो प्रचार अति कठिन प्रबल|||

अनुवाद : किन्तु कृष्णकथा से अधिकांश लोग परिचित हैं, इसीलिए लोगों में भागवतकथा का प्रचार और गान करना सरल है| यद्यपि गौरकथा तरल प्रेमरस से परिपूर्ण हैफिर भी गौरकथा का जगत में प्रचार करना बड़ा कठिन कार्य है||

प्रबल कठिन जे जानि करन|
गौर कथा सब जीव प्रदन|
सो उदार सब जीव जगत|
गौड़ीयजान करहु प्रनत|||

अनुवाद : गौरकथा का प्रचार कठिन कार्य है’– इस बात को जान कर भी जिन वैष्णवों ने (प्रमुखतः गौरकथा-सप्ताह आदि से) जगत के जीवों को गौरकथा का दान करने का बीड़ा उठाया हैवे परमवैष्णव ही संसार में सब से उदार हैं तथा उन्हें ही हम यथार्थरूप में गौड़ीय-वैष्णवजान करके उनके चरणकमल में दंडवत प्रणाम करते हैं||

प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: कुछ लोग ऐसा कहते हैं की यद्यपि गौरांग स्वयं कृष्ण हैं, तथापि वे एक भक्त के रूप में हैं, अत: अपने लीला काल के समय उन्होंने सर्वसाधारण के सामने अपनी भगवत्ता को प्रकाशित नहीं किया था| इसलिए वे यह मान बैठते हैं की इस समय भी उनका भगवान् के रूप में प्रचार ठीक नहीं है| किन्तु स्वयं गौरांग महाप्रभु भी यही चाहते हैं की गौर लीला सर्वत्र प्रकाशित हो| सच्चिदानंद श्रील भक्तिविनोद ठाकुर नवद्वीप धाम महात्म्य १/१०-११ में लिखते हैं
आर एक कथा आछे गूढ़ अतिशय| कहिते ना इच्छा हय ना कहिले नय||
जे अवधि श्रीचैतन्य अप्रकट हैल| धाम-लीला प्रकाशिते भक्ते आज्ञा दिल||
एक और बात है जो बहुत ही रहस्यमयी है| इसीलिए सबके सामने कहने की इच्छा नहीं है और इस बात को कहे बिना मुझसे रहा भी नहीं जाता| यह रहस्य है की जब गौरांग महाप्रभु ने अपनी लीला संवरण कर ली, तब उन्होंने सभी भक्तों को आदेश दिया की नवद्वीप धाम एवं गौरलीला को सभी लोगों के सामने प्रकाशित करें|

|| राग मेघ मल्हार |||
|*| मनोरम छन्द |*||

कारे बदरा घननेघं|
छाये उमड़ घुमड़ मेघं|
लायें जलनिधि भर नीरं|
लोक भयो रस रस पीरं|||

अनुवाद : सांवले रंग के मेघघन उमड़-घुमड़ कर के आकाश में छा गए हैं| वे मेघ जलनिधि (समुद्र) से जलभर कर सब लोगों पर बरसा रहे हैं|सभी लोग उस रस के पीर (चेरे) हो गए हैं||

प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: गौड़ीय वैष्णव ही मेघ बन कर जगत में आये हैं| वे गौर-निताइ कृपा रूपी वर्षा को बरसाने के लिए इस जगत में छा गए हैं| नित्यानंद प्रभु की महाकृपा ही समुद्र है|

बादर गजगं गज गाजं|
दामिनि करड़ं कड़ काजं|
लोकहु जागं सुन गाजं|
कुक्कुर दुष्टं दल भाजं|||

अनुवाद : वे मेघ अपने आने की सूचना देते हुए गज-गज शब्द कर के गरजते हैं तथा बिजली को भी करड़-करड़ शब्द करने के इलावा अब अन्य कोई काम नहीं है| उस कड़कड़ाहट और गर्जना को सुन कर सभी लोग जग गए हैं, लेकिन कुत्ते आदि दुष्ट पशुओं के दल इस गर्जना से डर कर भाग गए हैं||
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: उन वैष्णवों द्वारा उच्चारित गौरकथा एवं नाम संकीर्तन ही मेघ की गर्जना है| उनके द्वारा बताये गए वेदमार्ग सम्मत सुभक्ति-रक्षक कठोर सिद्धांत ही बिजली की कड़कड़ाहट है| उन सिद्धांतों को सुन कर लोग पाखण्ड-पंथों का त्याग कर के जग जाते हैं तथा दुष्ट पाखण्डी भाग कर दुबक जाते हैं|

भीजं रीझं सब लोकं|
शुष्क थलं सब तज शोकं|
धीर समीरं सननानं|
शीतलं बहे सब थानं|||

अनुवाद : सारे लोक अब उस वर्षा में भीग गए हैं| जो प्रदेश अब तक सूखे से पीड़ित थे, उन्होंने भी अपना शोक त्याग दिया है| अब धीर समीर (मंद-मंद बहने वाली शीतल वायु) सनन-सनन शब्द करके सब देशों में बहने लगी है||

प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: जिन प्रदेशों में अब तक नास्तिकवाद, बौद्धमत आदि शून्यवाद, शुष्क निराकारवाद अथवा मायावाद का बोलबाला था, उन प्रदेशों के लोग भी इन कुत्सित मतों को त्याग कर शोक रहित हो गए हैं| उनके हृदय में अब गौर कथा रूपी शीतल वायु बहने लगी है|

नीर कमल दल भर साजं|
नृत्य मयूरं कर काजं|
कृष्ण दास यह रस रागं|
गाय भाग तिनि के जागं|||

अनुवाद : सारे सरोवर कमल के दलों से भर गए हैं| आनंद के कारण मयूरों के पास अब नृत्य करने के इलावा और कोई काम नहीं है| कृष्ण दास कह रहे हैं की जो व्यक्ति रस से परिपूर्ण इस राग को गाते हैं, उनके   सोये हुए भाग्य जग जाते हैं||

प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: सब लोगों के हृदय रूपी सरोवर में अब गौरभक्ति रूपी पुष्प खिलने लगे हैं| वे सभी गौरभक्त बन कर नाम संकीर्तन में मयूरों की तरह नाच रहे हैं| जो व्यक्ति गौर-कृष्ण की भक्ति से युक्त हो कर इस राग को गाते हैं, वे अत्यंत सौभाग्यवान हैं|

 || राग यमन |||
|*| हरिगीतिका छन्द |*||

कृष्ण को भजते हैं सभी पल
कृष्णबरनहि गात हैं|
संग में अंग उपांग अस्तर
पारसद लै आत हैं|||

अनुवाद : जो सदैव कृष्ण का भजन करते रहते हैं, जिनके मुख से सदैव कृष्तथा इन दो वर्णों से युक्त कृष्ण-नाम उच्चारित होता रहता है, जो अपने साथ अपने सभी अंग, उपांग, अस्त्र तथा पार्षदों को ले कर कलियुग में अवतरित होते हैं||

नाम को कीर्तन जो करे हैं
गौर बरन सुहात हैं
गौर भजे हैं सो मेधावी
बुद्धि युक्त उदात हैं|||

अनुवाद : जो सदैव कृष्णनाम-संकीर्तन में ही रत रहते हैं, जो गौर-वर्ण हैं अर्थात जिनका शरीर गौर-कान्ति से युक्त हैकलियुग में जो जन ऐसे गौरांग महाप्रभु की संकीर्तन-यज्ञ के माध्यम से आराधना करते हैंवे सभी जन बहुत ही मेधावी, बुद्धिमान तथा उदात्त (सूक्ष्म-बुद्धि से युक्त) हैं||

प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: यह श्रीमद्भागवतम् ११/५/३२ में वर्णित इस श्लोक का अनुवाद मात्र है
कृष्णवर्णं त्विषाकृष्णं सांगोपांगास्त्र पार्षदम्| यज्ञै: संकीर्तन प्रायैर्यजन्ति हि सुमेध स:||
जो (कृष्’+‘’– इन दो वर्णों से युक्त) कृष्णनाम का कीर्तन करते हैं (कृष्णवर्णं), जिनके शरीर का वर्ण अकृष्ण (गौर) है (त्विषाकृष्णं), जो अपने संग अपने अंग, उपांग, अस्त्र और पार्षदों को लेकर प्रकट होते हैं (सांगोपांगास्त्र पार्षदम्)कलियुग में ऐसे भगवान् की आराधना जो मनुष्य नामसंकीर्तन यज्ञ के द्वारा करते हैं (यज्ञै: संकीर्तन प्रायै:), वे मनुष्य ही सुन्दर मेधा (बुद्धि) से युक्त हैं (यजन्ति हि सुमेध स:)|        
भगवान् गौरांग के अंग हैंनित्यानंद प्रभु एवं अद्वैत आचार्य प्रभु; उपांग हैंश्रीवासादि भक्तगण; पार्षद हैंश्री गदाधर, राय रामानंद, स्वरूप दामोदर, शिखी माहिती आदि; अस्त्र हैहरिनाम|
संकीर्तनयज्ञे तांरे करे आराधन| सेइ तसुमेधा आर कलिहतजन|| - चै॰च॰ २/११/९८-९९

जैसे भोजन ग्रास ते तुष्टि-
पुष्टि बढ़हि क्षुधा नसै|
गौरहरि गुन-नाम जो भजते
तिनि स्वरूप सहज रसै|||

अनुवाद : जैसे भोजन के प्रत्येक ग्रास के साथ मन की संतुष्टि और शरीर में पुष्टि की वृद्धि होती है तथा क्षुधा मिटती जाती है, उसी प्रकार से गौरहरि के नाम एवं गुणों को जो जन भजते हैं, उन्हें भगवान् के स्वरूप का अनुभव सहज में (बिना अधिक परिश्रम के) हो जाता है||

प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: यह श्रीमद्भागवतम् ११/२/४२ में वर्णित इस श्लोक का अनुवाद मात्र है
भक्ति: परेशानुभवो विरक्तिरन्यत्र चैष त्रिकैक काल:|
प्रपद्यमानस्य यथाश्नतः स्युस्तुष्टि: पुष्टि: क्षुधपायोनुघासं||
जिस प्रकार से भोजन करने वाले व्यक्ति को भोजन के प्रत्येक ग्रास के साथ मन की संतुष्टि, शरीर की पुष्टि एवं क्षुधा-निवृत्तिइन तीनो का अनुभव एक साथ ही होता है; उसी प्रकार से भगवान् का भजन करने वाले भक्त को भगवान् के प्रति अनन्य-भक्ति, भगवान् के स्वरूप का अनुभव एवं संसार के विषयों से वैराग्यइन तीनो का अनुभव भी एक साथ ही होता है|

कृष्णहिं नाम-धाम प्रेम-रूप
रसानंद सिन्धु रहैं|
जगत के नहीं व्यापहिं विषयन
सोहि उर बिलगै रहैं|||

अनुवाद : वे व्यक्ति कृष्ण के नाम-धाम-रूप एवं प्रेम के रससिन्धु में तैरते रहते हैं| जगत के सुख-दुःख तथा विषयों के बीच में रहने पर भी उन व्यक्तियों को यह सब व्यापते नहीं हैं| उनका चित्त संसार में रह कर भी संसार से उपराम होता है|

|| राग देस ||||
|*| छप्पय छन्द |*||

गौरकथा परकास-
रूप जो ग्रन्थनि सेवै|
जान लहैंगे गौर
दास यह आस करेवै|||

अनुवाद : गौरकथा को प्रकाशित करने वाले इस ग्रन्थ का जो नित्य सेवन करेंगे, वे अवश्य ही गौरांग महाप्रभु की कथा से संक्षिप्त रूप में परिचित हो जायेंगेदास (लेखक) को इसी बात की आस है||

गौर कथा को जान
काज बस गौर भजन है|
भजन यही नित नाम
ग्रन्थ का पाठ मनन है|||

अनुवाद : किन्तु गौरकथा से परिचित होने के पश्चात पाठकों के लिए नित्य गौरभजन करना ही कर्तव्य है| (गौरभजन कैसे करें?) गौरभजन यही है की नाम (गौरांग-नित्यानंद नाम एवं हरेकृष्ण महामंत्र) का नित्य जप-कीर्तन आदि करते रहें एवं इस ग्रन्थ का कुछ भाग प्रतिदिन नियमपूर्वक पढ़ते रहें तथा पढ़ने के पश्चात मनन करते रहें||

ऐसो कहि कर गौर को
सार कथा सिर-मौर को|
कृष्णदास रसखान को
शेष करै इस गान को|||


अनुवाद : सभी कथाओं की मुकुटमणि तथा रस की खान इस गौरकथा को सार रूप में कह कर यह कृष्ण-दासअब इस कथा को विराम दे रहे हैं||