|| राग रागेश्री ||१|
||
रोला-छन्द ||१|
परथम तत्त्व बखान
सदा गौरांग कहायें|
भक्त रूप भगवान छन्न
अवतार कहायें||१| ||विश्राम||
अनुवाद: अब हम पंचतत्त्व में प्रथम तत्त्व–
भगवान् गौरांग का चालीसा-गान कर रहे हैं|
पञ्च-तत्त्व में वह ‘भक्त-रूप’ कहलाते हैं तथा छन्न रूप (छुपे हुए रूप) में स्वयं कृष्ण ही
हैं|१| विश्राम ||
||
चौपाई छन्द ||२|
जय जय गौर प्रेम अवतारी|
जय जय कीर्तन नाम बिहारी||१|
अनुवाद: कृष्ण प्रेम के अवतार गौरांग महाप्रभु की जय हो! जय हो!
श्रीहरिनाम संकीर्तन में विहार करने वाले गौरांग महाप्रभु की जय हो! जय हो|१|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: भगवान् गौरांग का प्राकट्य इस धराधाम पर बंगाल के नवद्वीप
धाम के अंतर्गत मायापुर नामक स्थान पर हुआ| उनका प्रकटलीला-काल सन् १४८६ से १५३४ तक माना जाता है|
गौरांग महाप्रभु का प्राकट्य एक नीम के वृक्ष तले हुआ–
इसीलिए उनका बचपन का नाम ‘निमाइ’ है| यह नीम का वृक्ष आज भी उनके जन्मस्थान (जिसे योगपीठ कहा
जाता है) पर स्थित है| राधा और कृष्ण ही मिलित रूप हो कर गौरांग के रूप में प्रकट
हुए हैं|
कृष्णलीला में जो उनकी माता यशोदा तथा पिता नन्द महाराज हैं–
वे ही अब गौर लीला में उनकी माता शचिदेवी तथा पिता
श्रीजगन्नाथ मिश्र हैं|
गौरांग महाप्रभु कृष्णप्रेम के अवतार–
कृष्णप्रेम के ठाकुर हैं| प्रेम शब्द को परिभाषित करते हुए श्रीचैतन्य चरितामृत
(४.१६५) में श्रील कृष्णदास कविराज गोस्वामी कहते हैं–
आत्मेन्द्रिय
प्रीति वांछा– तारे बलि ‘काम’| कृष्णेंन्द्रीय प्रीति इच्छा– धरे ‘प्रेम’ नाम||
स्वयं अपनी संतुष्टि के लिए की गयी इच्छा को ‘काम’ कहते हैं| जब यही इच्छा एकमात्र कृष्ण की ही प्रसन्नता के लिए की जाती
है–
तब उसे ‘प्रेम’ कहते हैं|
जय जय गौरकृष्ण पर-ईश्वर|
जय जय रसिकनि को आधीश्वर||२|
अनुवाद: परम-ईश्वर गौर-कृष्ण की जय हो! जय हो! सभी रसिक-वैष्णवों
के अधीश्वर गौरांग-कृष्ण की जय हो! जय हो!|२|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: गौरांग महाप्रभु का दूसरा नाम है–
‘गौर’|
उनके शरीर की कान्ति कैसी है?– राधारानी की अंग कान्ति के समान बिलकुल गोरी|
लेकिन वह स्वयं कृष्ण ही हैं– इसीलिए उन्हें ‘गौर-कृष्ण’ भी कहा जाता है| मीरा बाई अपने एक पद में कहती हैं–
गौर-कृष्ण की दासी मीरा रसना कृष्ण बसै||
जय जय जय अवतारिन आकर|
उन्नतोज्जवल प्रेम प्रदाकर||३|
अनुवाद: सभी अवतारों के मूल स्त्रोत तथा उन्नातोज्ज्वल ब्रज प्रेम
प्रदान करने वाले श्रीचैतन्य महाप्रभु की जय हो! जय हो|३|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: कृष्ण सभी अवतारों के मूल हैं: इसीलिए उन्हें ‘अवतारी-पुरुष’ भी कहा जाता है| श्रीमद्भागवतम् (१/३/२८) में आया है–
एते चांश्कला पुंस: कृष्णस्तु भगवान् स्वयं–
सभी अवतार भगवान् के केवल अंश अथवा कलाएं ही हैं–
किन्तु कृष्ण तो स्वयं भगवान् ही हैं| कृष्ण एवं गौरांग में कोई भी अंतर नहीं है–
अत: गौरांग भी ‘अवतारी-पुरुष’ कहलाते हैं|
गौरांग महाप्रभु किस प्रकार के प्रेम को प्रदान करते हैं?–
‘उन्नतोज्ज्वल-प्रेम’–
यह उन्नतोज्ज्वल प्रेम सभी रसों के शिरोमणि रस–
माधुर्य रस से ओत-प्रोत है| यह भी दो प्रकार का है– कामात्मिक-प्रेम (जैसा कृष्णप्रेम गौरांग स्वयं आस्वादन
करते हैं) और दूसरा तत्तद-भाव-इच्छात्मिक-प्रेम (जिस कृष्णप्रेम का दान गौरांग
दूसरों को करते हैं)|
रस पांच प्रकार के हैं– १. शांत रस (वृन्दावन के वृक्ष,
लता, बांसुरी आदि इस रस में स्थित हैं) २. दास्य रस (भगवान् के
दास–
रक्तक, पत्रक और चित्रक इस रस में स्थित हैं) ३.वात्सल्य रस
(भगवान् के माता-पिता जैसे यशोदा माता, रोहिणी माता तथा नन्द महाराज इस रस में स्थित हैं) ४. सख्य
रस (भगवान् के ग्वाल-सखा जैसे मधुमंगल, सुबल इस रस में स्थित हैं) ५. माधुर्य (भगवान् की प्रेयसी
गोपियाँ तथा राधाजी इस रस में स्थित हैं)
बहु कारन प्रभु प्रकट भयहु हैं|
चार बहिर यह सन्त कहहु हैं||४|
अनुवाद: भगवान् गौर-सुन्दर के प्रकट होने के बहुत से कारण हैं|
संत सभी कारणों में से चार बाह्य (बाहरी) कारण बताते हैं|४|
प्रथम बाह्य कारन बतलावें|
सो सब वैष्णव वेद सुनावें||५|
अनुवाद: अब हम पहला बाह्य कारण बता रहे हैं|
सभी वेद तथा वैष्णव इन कारणों को उजागर करते हैं|५|
चार युगन के भिन्न धरम हैं|
सो युग महि सो धरम परम हैं||६|
अनुवाद: चारों युगों के अलग-अलग युगधर्म हैं तथा उन-उन युगों में
उनके युग-धर्म ही परम-धर्म होते हैं|६|
सत तरहीं हरि ध्यान प्रभाऊ|
त्रेता बहु बिधि यज्ञ कराऊ||७|
अनुवाद: सत्ययुग में केवल श्रीहरि का ध्यान करके जीव तरते थे|
त्रेता युग में सभी जीव विभिन्न प्रकार के यज्ञ करके तरते
थे|७|
द्वापर मंदिर अर्चन करहीं|
कलिहिं नाम कीर्तन सों तरहीं||८|
अनुवाद: द्वापर युग में जीव भव्य मंदिरों में वैदिक विधि से भगवान्
की श्रीमूर्ति का अर्चन करके भव सागर से तरते थे| कलियुग में जीव केवल श्रीहरिनाम संकीर्तन से ही भवसागर से
तर सकते हैं|८|
कलिहिं धर्म संस्थापन करिहैं|
कृष्ण गौर सुन्दर बन परिहैं||९|
अनुवाद: कलियुग के युगधर्म (श्रीहरिनाम संकीर्तन) को संस्थापित
करने के लिए ही स्वयं श्याम-सुन्दर गौर-सुन्दर का रूप प्रकट करते हैं|९|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: श्रीमद्भागवतम् में स्पष्ट उल्लेख आता है–
कृतौ
यद्धयायते विष्णुं त्रेतायां यजतो मखै:| द्वापरे परिचार्यायाम् कलौ तद्धरिकीर्तनात||
सत्य युग में केवल भगवान् विष्णु का ध्यान करने से,
त्रेतायुग में यज्ञ करने से, द्वापर में अर्चना आदि करने से तथा कलियुग में केवल कीर्तन
करने से ही उद्धार होता है| धर्म को संस्थापित करने के लिए भगवान् युग-युग में अवतार
लेते हैं तथा युगधर्म को संस्थापित करते हैं|
यहाँ पर एक बात घ्यान देने योग्य है की भगवान् गौरांग ‘प्रेम-नाम-संकीर्तन’ का प्रचार करते हैं तथा अन्य साधारण कलियुगों में केवल ‘नाम-संकीर्तन’ का ही प्रचार होता है| इसीलिए श्रील लोकनाथ गोस्वामी (कृष्ण लीला में ‘लीला-मंजरी’ नामक सखि) ने एक भजन में इस कलियुग को धन्य-कलि कहा गया है–
के जाबि के जाबि रे भाई भव सिन्धु पार|
धन्य-कलियुगेर चैतन्य अवतार||
दूसर प्रभु अद्वैत पुकारे|
तीसर निज प्रण सत करिवारे||१०|
अनुवाद: दूसरा कारण श्रीअद्वैत प्रभु ने जो प्रण किया था कि मैं
अवश्य ही अपने प्रभु श्रीकृष्ण को इस कलियुग में अवतरित करवाऊंगा–
उनकी प्रतिज्ञा को सत्य करने के लिए भगवान् के अवतार लिया|
तीसरा कारण है की भगवान् ने वेदों में जो प्रतिज्ञा की थी–
“मैं कलियुग में अवतार
धारण करूंगा”– उस प्रतिज्ञा को सत्य करने के लिए ही भगवान् नवद्वीप धाम
में प्रकट हो गए|१०|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: भगवान् के प्राकट्य के दो कारण हैं–
परित्राणाय साधुनां विनाशाय च दुष्कृताम–
इनमें से भगवान् के प्राकट्य का मुख्य कारण केवल अपने
साधुभक्तों द्वारा बुलाया जाना है| दूसरा गौण (छोटा) कारण है– दुष्टों का संहार| इसीलिए भगवान् ने पहले परित्राणाय साधुनां कहा है और बाद
में विनाशाय च दुष्कृताम् कहा है| केवल अधर्म की वृद्धि होने मात्र से भगवान् पृथ्वी पर अवतार
धारण नहीं करते, किन्तु पृथ्वी के वासियों को अधर्म से पीड़ित देख कर जब उनके
शुद्धभक्त उन्हें बुलाते हैं, तभी वे अवतार धारण करते हैं| श्रीअद्वैत प्रभु ने जब भगवान् को अवतार लेने के लिए बुलाया,
तभी भगवान् ने अवतार धारण किया|
इस प्रसंग को आगे श्री अद्वैत चालीसा प्रकाश में बताया गया
है|
अथर्ववेद के श्रीचैतन्योपनिषद में आता है–
जाह्नवीतीरे नवद्वीपे गोलोकाख्ये धाम्नि गोविन्दो द्विभुजो
गौर: सर्वात्मा महापुरुषो महात्मा महायोगी त्रिगुणातीत सत्त्वरूपो भक्तिं लोके
काश्यति||
-
भगवती देवी भागीरथी के तट पर जो गोलोकधाम से अभिन्न नवद्वीप
धाम है–
वहीँ पर सर्वान्तर्यामी, महापुरुष, महात्मा, महायोगी, त्रिगुणातीत, शुद्धसत्त्वस्वरूप भगवान् गोविन्द ही द्विभुज गौर-रूप ले कर
अवतीर्ण होंगे तथा इस लोक में प्रेमभक्ति को प्रकाशित करेंगे|
अग्निपुराण में लिखा हुआ है–
प्रशान्तात्मा लम्बकण्ठश्च गौरांगश्च सुरावृत:–
भगवान् कृष्ण गौरांग के रूप में अवतार धारण करेंगे|
वे परम शान्ति से युक्त होंगे|
उनका सुन्दर लम्बा गला होगा तथा वे देवता रूपी अपने भक्तों
के बीच में घिरे रह कर कीर्तन करेंगे
भगवान् ने स्वयं गीता में कहा है–
धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे|
यहाँ पर युगे-युगे - दो बार कहने का अर्थ है की भगवान्
प्रत्येक युग में अवतरित होते हैं– अतः वे कलियुग में भी अवश्य ही अवतरित होते हैं|
चौथा अब हम कारन कहिहैं|
सुन सब सज्जन चित्त लगहि हैं||११|
अनुवाद: अब हम चौथा बाह्य कारण बता रहे हैं|
सभी सज्जन पाठक चित्त को लगा कर इस वाणी का श्रवण करें|११|
द्वापर सह परिकर प्रभु आवहिं|
लीला अन्तरंग प्रकटावहिं||१२|
अनुवाद: द्वापर युग में भगवान् कृष्ण स्वयं अपने पार्षदों को ले कर
धरा पर आते हैं तथा बहुत अन्तरंग लीलाओं को प्रकट करते हैं|१२|
सो सब ही के चित्त न आवहिं|
श्री-बिरिंचि-शिव पार न पावहिं||१३|
अनुवाद: लेकिन वे लीलाएं अन्तरंग (गूढ़) होने के कारण उनका तत्त्व
साधारण मनुष्यों की समझ में नहीं आता| यहाँ तक की लक्ष्मी, ब्रह्मा तथा शिव भी उन अन्तरंग लीलाओं में प्रवेश नहीं पा
सकते|१३|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: ब्रज में की गयी लीलाएं, विशेषतः रासलीला आदि ही अन्तरंग लीलायें हैं|
भागवतम् (१०/४७/६०) में कहा गया है–
“नायं श्रियोSञ्गौ नितांतरते: प्रसादः” अर्थात–
रासलीला में गोपियों को भगवान् के श्रीअंग-स्पर्श का जो
सुख-प्रसाद प्राप्त हुआ था, वह कृपा-प्रसाद लक्ष्मी जी को भी प्राप्त नहीं हो सका|
स्वयं गौरांग महाप्रभु श्रीवेंकट भट्ट से पूछते हैं–
“रास न पाइल लक्ष्मी– शास्त्रे इहा शुनि|” (- चै॰च॰ २/९/१२०)| वृन्दावन के बेलवन में एक मंदिर है जहाँ पर आज भी लक्ष्मी
जी तपस्या में रत हैं|
श्रीमद्भागवतम् (१२/१३/१६) में कहा गया है की भगवान् शिव
वैष्णवों में सब से श्रेष्ठ वैष्णव हैं (वैष्णवानां यथा शम्भु:)|
लेकिन तब भी वे रास लीला में प्रवेश नहीं कर पाए थे,
अपितु एक गोपी के रूप में (गोपेश्वर महादेव) रासमंडल के
बाहर ही स्थित हो कर धाम-रक्षक के रूप में निवास करते हैं|
किन्तु लक्ष्मी तथा शिव आदि रास लीला में प्रवेश करने की
इच्छुक क्यों हैं?– इस के उत्तर में गौरांग कहते हैं–“स्वमाधुर्ये सर्व चित्त करे आकर्षण”–
भगवान् कृष्ण की रूप माधुरी है ही ऐसी है के वे बरबस सबको
अपनी ओर आकर्षित कर लेते हैं (- चै॰च॰ २/९/१२७)
सो कारन ब्रजभाव अभावा|
सर्व प्रबेस मिलहिं नहिं पावा||१४|
अनुवाद: इस का कारण उनमें ब्रजभाव का अभाव है,
जिसके कारण उन सब को भी श्रीराधा-कृष्ण की अन्तरंग लीलाओं
में प्रवेश नहीं मिल पाता|१४|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: लक्ष्मी तथा शिव इत्यादि भी रासलीला में क्यों प्रवेश नहीं
कर पाए?
इस का उत्तर गौरांग महाप्रभु वेंकट भट्ट को इस प्रकार देते
हैं–
“लक्ष्मी चाहे सेइ देहे कृष्णेर संगम|
गोपिका अनुग हञ न कैल भजन||”– लक्ष्मी अपनी उसी ऐश्वर्यमयी देह से कृष्ण का संग चाहती थीं
(कृष्ण के लिए अपने एश्वर्य का त्याग नहीं कर सकीं)| उन्होंने व्रज-गोपिकाओं का आनुगत्य ग्रहण करके भजन नहीं
किया था|
(- चै॰च॰ २/९/१३६)
ब्रजवासियों द्वारा की गयी भक्ति ‘रागात्मिका’ कहलाती है तथा इसीलिए ब्रजवासी ‘रागात्मिक’ कहलाते हैं| वैसी भक्ति देवताओं इत्यादि के लिए भी बहुत ही दुर्लभ है|
वैसी भक्ति की इच्छा रखने वाले वैष्णव-साधक अपने इच्छित रस
के अनुरूप ब्रज वासियों में से किसी भी ब्रजवासी का आनुगत्य (जैसे गोपसखा अथवा
गोपांगनाओं की छत्रछाया में रह कर उनके भावों का अनुसरण) ग्रहण कर के भक्ति करते
हैं–
ऐसे गौड़ीय वैष्णव साधकों को ‘रागानुग’ कहा जाता है तथा उनके द्वारा की जाने वाली भक्ति को ‘रागानुगा-भक्ति’ कहा जाता है| सभी ‘रूपानुग’ स्वतः ही ‘रागानुग’ होते हैं किन्तु सभी ‘रागानुग’ ‘रुपानुग’ हों– ऐसा आवश्यक नहीं है|
सो हि प्रबेस सुगम करवावहिं|
कृष्ण गौरसुन्दर बनि आवहिं||१५|
अनुवाद: जीवों के लिए ब्रजलीला में प्रवेश प्रदान करने के लिए एवं
उसे सुगम करने के लिए स्वयं कृष्ण ही गौर सुन्दर बन कर आते हैं|१५|
जो ब्रज प्रेम आच्छादित रहहु|
सबै जग तिस सों वन्या करहु||१६|
अनुवाद: जो ब्रज प्रेम बहुत समय तक अच्छादित (ढका हुआ) रहता है,
चैतन्य महाप्रभु उसी ब्रजप्रेम की बाढ़ में सारे जगत को डुबा
देते हैं|१६|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: एक कलियुग का काल ४,३२००० का है तथा इससे दुगुना द्वापर,
तीन गुना त्रेता, और चार गुना सतयुग का समय काल है|
चारों युगों को मिला कर एक चतुर्युगी होती है तथा ऐसी १००० चतुर्युगों
को मिला कर ब्रह्मा जी के बारह घंटे (एक दिन) का समय होता है जो की मनुष्यों के ४,३२,०००,००,०० साल के बराबर होता है| ब्रह्मा जी की चरम आयु १०० साल ही है|
उस ब्रह्माजी के एक दिन में (१००० चतुर्युगों में) केवल
किसी एक चतुर्युगी के द्वापरयुग में ही भगवान् कृष्ण प्रकट होते हैं तथा केवल उसी
चतुर्युगी के कलियुग में पुनः गौरांग के रूप में प्रकट होते हैं|
गौरांग के रूप में वे ब्रज प्रेम का दान करते हैं|
इसीलिए यह ब्रजप्रेम अत्यंत ही दुर्लभ है|
श्रील रूपगोस्वामी कृत ‘विदग्ध-माधव’ नामक ग्रन्थ में कहा गया है:
अनर्पित
चरीम् चिरात् कारुण्यावतीर्ण: कलौ| समर्पयितुमुन्नतोज्ज्वल रसां स्वभक्तिश्रियं||
हरि:
पुरटसुन्दरद्युतिकदम्बसंदीपितः| सदा ह्रदयकन्दरे स्फुरतु व: शचीनंदन:||
पूर्ण परब्रह्म परमेश्वर, जोकि श्रीमती शचीदेवी के पुत्र के रूप में जाने जाते हैं–
आप की ह्रदय रूपी कन्दरा में सदा स्फुरित होते रहें|
श्रीराधा जी का तप्तकांचन वर्ण अंगीकार करके तथा कलियुग के
जीवों के प्रति महाकरुणा के वशीभूत हो कर वे इस कलियुग में उस परमश्रेय रूप एक ऐसी
वस्तु का दान करने के लिए आये हैं जिसका दान चिरकाल तक अन्य किसी भी अवतार ने नहीं
किया|
यह वस्तु है– परम भक्तिरूप रसशिरोमणि उन्नतोज्ज्वल माधुर्य रस|
अन्तरंग कारन तिस तीना|
सब वैष्णव ह्रदयन्तर चीना||१७|
अनुवाद: सभी वैष्णव अपने ह्रदय में इस बात को विचार कर के कहते हैं
की भगवान् गौर कृष्ण के प्राकट्य के तीन अन्तरंग (गूढ़ या भीतरी) कारण हैं|१७|
सब अवतार कृष्ण अवतारा|
तिस महि प्रेम प्रकास अपारा||१८|
अनुवाद: भगवान् के सभी अवतारों में से केवल कृष्ण अवतार में ही
प्रेम का पूर्णतम रूप प्रकट हुआ है|१८|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: चतुर्माधुरी: केवल श्रीकृष्णलीला में ही ऐसी चार माधुरियां
है जो अन्य किसी भी अवतार में प्रकट नहीं हुई, यहाँ तक की भगवान् राम तथा स्वयं विष्णु में भी यह
माधुरियां दिखाई नहीं देतीं–
(१) लीला माधुरी (सर्वाद्भुत चमत्कार लीलाकल्लोल वारिधि:)– सभी अवतारों में सब से अद्भुत लीलाओं के अपार समुद्र-स्वरूप
(२)
भक्त माधुरी (अतुल्य माधुर्य
प्रेममंडित प्रियमण्डल:)– अतुलित माधुर्य से युक्त व्रजवासियों (गोप सखा तथा गोपियों)
के मण्डल से परिवेष्टित (घिरे हुए)
(३)
वेणु माधुरी (त्रिजगन्मानसाकर्षी
मुरली कल कूजितै:)– त्रिलोकी में सभी के मन को मोह लेने वाली मुरली कलकूजित
करने वाले
(४) रूप माधुरी (असमोर्ध्व रूपश्री: विस्मापित चराचर:)– ऐसे अपार रूप माधुरी से युक्त की जिसे देख कर जड़-वस्तु चेतन
हो जाए और चेतन-वस्तु जड़ हो जाए|
तिस महि ब्रज लीला अति न्यारी|
तिस पुनि श्रीजू सखियन प्यारी||१९|
अनुवाद: उन सभी कृष्ण लीलाओं में भी ब्रजलीला तो अन्य सब लीलाओं से
न्यारी है| उस ब्रजलीला में भी श्रीमती राधारानी तथा अन्य सखियों के
साथ जो लीलाएं हुई हैं, वे सब से मधुरतम तथा अन्तरंग लीलाएं हैं|१९|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: ब्रजगोपिकाओं के प्रेम को देख कर उद्धव जी कहते हैं–
आसामहो चरणरेणुजुषामहं स्यां वृन्दावने किमपि
गुल्मलतौषधीनां|– अहो! मैं तो बस यही आशा करता हूँ की मैं वृन्दावन में कोई
गुल्म,
लता अथवा औषधि इत्यादि ही बन जाऊं ताकि इन गोपिकाओं की
चरणरज मेरे ऊपर सदा पड़ती रहे! (भागवतम् १०/४७/६१)
प्रथमहु कारन अब हम कहिहौं|
बरनन को तिनि किरपा चहिहौं||२०|
अनुवाद: अब हम श्रीमन्गौरांग महाप्रभु के प्राकट्य का प्रथम
अन्तरंग कारण बतला रहे हैं| किन्तु यह कथा वर्णन करने के लिए हम श्रीकृष्णचैतन्य
महाप्रभु से कृपा की भिक्षा मांगते हैं|२०|
श्री राधा को प्रणय अपारा|
तिस को महिमा अपरम्पारा||२१|
अनुवाद: श्रीमती राधारानी का कृष्ण के प्रति अपार प्रणय भाव है|
उस भाव की महिमा का पूरा-पूरा वर्णन करना बिलकुल भी संभव
नहीं है|२१|
तिस को चीन्ह हेतु मन माहीं|
श्रीहरि गौरदेव बनि जाहीं||२२|
अनुवाद: उसी प्रणय भाव की महिमा को समझने के लिए ही कृष्ण गौरांग
के रूप में प्रकट हो जाते हैं (यह पहला कारण बताया गया)|२२|
दूसर कारन अब हम बरनौं|
तिस बरननि को गहि तिन सरनौं||२३|
अनुवाद: अब हम दूसरा कारण वर्णन कर रहे हैं|
यह सब वर्णन करने के लिए हम भगवान् की शरण ग्रहण करते हैं|२३|
श्री जू जे गुन पान करहि हैं|
सो गुन को के रसन परहि हैं||२४|
अनुवाद: भगवान् कृष्ण विचार करते हैं–
श्रीमती राधारानी हमारे जिन दिव्य गुणों का आस्वादन करती
हैं,
वे सभी गुण कौन से हैं तथा वे सभी गुण किस भाव तथा रस से
परिपूर्ण हैं (अर्थात स्वयं मेरी मधुरिमा– जिसका दर्शन एवं आस्वादन राधाजी करती हैं–
वह मधुरिमा कैसी है?)|२४|
तिन गुनगन उर जानहिं भावे|
कृष्ण गौरसुन्दर बनि आवे||२५|
अनुवाद: उन सभी गुणसमूह (अपनी ही मधुरिमा) को अपने ह्रदय में अनुभव
करने के लिए ही कृष्ण गौरांग के रूप में प्रकट होते हैं|२५|
तीसर श्री गुन पान करहिहैं|
तब कैसो अनंद मन लहिहैं||२६|
अनुवाद: तीसरा अन्तरंग कारण यह है की जब श्रीमती राधिका जी कृष्ण
के दिव्य गुणों का आस्वादन करती हैं, तब उनके ह्रदय में किस प्रकार का आनंद उदित होता है|२६|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: श्री चैतन्य चरितामृत, आदि-लीला, ४/२३० में वर्णन है–
श्रीराधाया:
प्रणयमहिमा कीदृशो वानयैवास्वाद्यो येनाद्भुत मधुरिमा कीदृशो वा मदीयः|
सौख्यञ्चास्या
मदनुभवतः कीदृशं वेति लोभात्तद्भावाढ्य: समजनि शचीगर्भसिन्धौ हरीन्दु:||
श्रीमती राधारानी की प्रणय-महिमा को जानने के लिए,
स्वयं अपनी मधुरिमा– जिसका पान केवल श्रीमती राधिका ही करती हैं–
उस मधुरिमा को जानने के लिए तथा उस मधुरिमा के आस्वादन से
राधिका जी के मन में जो अनिर्वचनीय सुख उत्पन्न होता है–
उस सुख का स्वयं आस्वादन करने के लिए ही श्रीकृष्ण शचीमाता
के गर्भ से बिलकुल उसी प्रकार प्रकट हो गये, जैसे समुद्र के गर्भ से चन्द्र का जन्म हुआ था|
सो अनंद हरि सदा तकहि हैं|
कृष्ण रूप नहि पान सकहि हैं||२७|
अनुवाद: वह आनंद ऐसा है की त्रिलोकी के नाथ भी उस आनंद का अनुभव
करने के लिए तकते रहते हैं (लालायित रहते हैं), किन्तु कृष्ण के रूप में भगवान् न तो उन गुणों को जान सकते
हैं और न ही उन गुणों का स्वयं रसास्वादन कर सकते हैं|२७|
क्योंकी प्रेम विषय हरि राये|
आश्रय श्री जू अंतरि माये||२८|
अनुवाद: इस का कारण यह है की कृष्ण स्वयं उस प्रेम के विषय हैं
किन्तु केवल श्रीमती राधारानी का हृदय ही उस प्रेम का आश्रय स्थल है|२८|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: मधु (शहद) स्वयं रस से ही ओत-प्रोत होता है अर्थात वह रस
का आश्रय स्थल है| किन्तु मधु स्वयं उस रस का आस्वादन नहीं कर सकता क्योंकि
रसास्वादन के लिए जो लोभ चाहिए, उस लोभ का आश्रय
स्थल मधु नहीं है| उस लोभ (अथवा प्रेम) का आश्रय तो केवल आस्वादनकारी का ह्रदय
है|
इसी तरह से कृष्ण स्वयं रस स्वरूप हैं (यही बात यजुर्वेद का
तैत्तिरीय उपनिषद २/७ भी कहता है– रसो वै स:)| किन्तु कृष्ण स्वयं उस का आस्वादन नहीं कर सकते क्योंकि जिस
प्रेम से उस रस का आस्वादन हो सकता है– वह प्रेम तो केवल श्रीराधिका जी के हृदय में है|
वह प्रेम राधिका जी के ह्रदय से रस-स्वरूप कृष्ण की ओर
प्रवाहित होता है क्योंकि कृष्ण उस प्रेम के विषय हैं|
श्री कउ बरन-भाव-मन लहिहैं|
निज परिकर सह पान करहिहैं||२९|
अनुवाद: अतः उन सभी गुणों तथा भावों का स्वयं रसास्वादन करने के
लिए ही कृष्ण श्रीमती राधिका जी की अंगकान्ति, उनके भाव तथा उनका ह्रदय ग्रहण करके अपने सभी पार्षदों को
संग ले कर गौर के रूप में अवतरित होते हैं तथा उन सभी भावों का रसास्वादन करते हैं|२९|
सो रस हरिजू पान करय हैं|
ताते श्याम गौर बनि जय हैं||३०|
अनुवाद: श्रीमती राधिका जी के ह्रदय-गत भावों का स्वयं रसास्वादन
करने के उद्देश्य से ही कृष्ण गौरसुन्दर के रूप में प्रकट होते हैं|३०|
हरि कलि छन्न रूप अवतरि हैं|
तिसते ‘त्रियुग’ भागवत करि हैं||३१|
अनुवाद: कलियुग में भगवान् केवल छन्न अवतार ही धारण करते हैं तथा
अन्य तीन युगों में भगवान् लीलावतार धारण करते हैं| इसी कारण से श्रीमद्भागवतम् में भगवान् को ‘त्रियुग’ नाम से संबोधित किया गया है|३१|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: श्रीमद्भागवतम् ७/९/३८ में भक्तराज प्रह्लाद भगवान् नृसिंह
से कहते हैं– छन्न: कलौ यदभवस्त्रित्रियुगोSथ स त्वम्– कलियुग में आप केवल छन्नरूप (अपने आप को छुपा कर) ही अवतार
धारण करते हैं, किन्तु अन्य तीन युगों में आप अपनी भगवत्ता को सबके सामने
प्रकट करके लीलावतार धारण करते हैं– इसीलिए आपको शास्त्रों में ‘त्रियुग’ कहा गया है|
बंग महि नवद्वीप सुधामा|
ता महि प्रकट गौर गुन धामा||३२|
अनुवाद: बंगाल में ‘नवद्वीप’ नामक बहुत ही सुन्दर धाम है| सभी गुणों के धाम भगवान् गौरांग वहीं पर अवतार धारण करके
प्रकट होते हैं|३२|
सदा सदा नामहि रस बरजै|
ताल मृदंग मेघ सों गरजै||३३|
अनुवाद: उस नवद्वीप धाम में सदा-सदा ही श्रीहरिनाम संकीर्तन रूपी
रस बरसता रहता है| वहां पर कीर्तन में बजते हुए मृदंग एवं करताल इत्यादि की
ध्वनी ऐसे सुनाई पड़ती हैं मानों मेघ गरज रहे हों|३३|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: मेघ की गर्जना स्वाभाविक रूप से सब को निद्रा से जगा देती
है–
ठीक उसी प्रकार से कीर्तन में बजते हुए मृदंग जीव को
माया-निद्रा से जगा देते हैं|
म्लेच्छ यवन चंडाल पतित जो|
सब पावैं हरिप्रेम रतन सो||३४|
अनुवाद: उस नवद्वीप धाम के प्रभाव से म्लेच्छ,
चंडाल एवं पतित– सभी पापी एवं अपराधी व्यक्ति भी हरिप्रेम रूपी रतन धन
प्राप्त करते हैं|३४|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: श्रीकृष्ण जीव का उद्धार तो करते हैं,
लेकिन उद्धार के लिए पहले शर्त रखते हैं|
वे गीता (१८/६६) में कहते हैं–सर्वधर्मान परित्यज्य मामेकं शरणम् व्रज:|
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षिष्यामी मा शुच:–
सारे धर्मों का परित्याग कर के एकमात्र मेरी ही शरण ग्रहण
करो–
ऐसा करने से मैं तुम्हारे सारे पापों का नाश कर दूंगा|
लेकिन गौरांग महाप्रभु तो बिना किसी भी शर्त के,
जीव के अधिकार-अनाधिकार
की अपेक्षा रखे बिना ही उद्धार करते हैं– क्योंकि वे औदार्य (उदारता) के अवतार हैं,
जबकि कृष्ण माधुर्य के अवतार हैं|
माधुर्य का स्वभाव ही यही है की वह अधिकार-अनाधिकार का
विचार करता है किन्तु औदार्य (उदारता) जीव के दोषों को नहीं देखता|
पुनहि प्रभु सन्यास को लयहैं|
जगन्नाथ पुरि हरि जू अयहैं||३५|
अनुवाद: नवद्वीप धाम में हरिनाम संकीर्तन प्रचार लीला को प्रकाशित
करने के पश्चात गौरांग महाप्रभु संन्यास ग्रहण करके श्रीजगन्नाथ पुरी धाम में आ
जाते हैं|३५|
कीर्तन करहीं नृत्य निरंतर|
कंप-स्वेद-अश्रहु दृग अंतर||३६|
अनुवाद: वहां श्रीजगन्नाथपुरी धाम में भी भगवान् गौरांग निरंतर नाम
संकीर्तन एवं नृत्य करते हैं| नृत्य करते समय उनके दिव्य देह में कंप एवं स्वेद (पसीना)
आदि,
तथा उनके नयनों में अश्रुजल का बहना इत्यादि अष्टसात्विक
विकार बार-बार प्रकट होते हैं|३६|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: भगवान् के शरीर में अनंत प्रकार के प्रेम विकार प्रकट होते
थे|
श्रील रूप गोस्वामी अपने ग्रन्थ ‘श्रीभक्तिरसामृतसिन्धु’ में इन भावों का वर्णन करते हैं–
(१) स्तम्भ–
खम्भे की तरह एक स्थान पर जड़ हो जाना (२) प्रस्वेद–
अचानक बहुत मात्रा में पसीना आना (३) रोमांच–
शरीर के रोओं (बाल) का खड़े होना (४) अश्रुप्रवाह–
आँखों से निरंतर अश्रुधार बहना (५) कम्प–
शरीर में आवेग से कम्पन होना (६) स्वरभेद–
प्रेम की अधिकता के कारण आवाज का लड़-खड़ाना अथवा कंठ का
गद्गद होना (७) वैवर्ण्य–
शरीर का रंग अचानक पीला पड़ना (८) प्रलय–
बाहरी सुध-बुध खो देना अथवा मूर्छित हो जाना|
ऐसो पूर्व प्रेम नहि गोचर|
जैसो दइहु गौर किरपा कर||३७|
अनुवाद: भगवान् के किसी भी अन्य अवतार ने जीवों को पहले कभी भी ऐसे
कृष्णप्रेम का दान नहीं किया जैसा कृपाधर गौरांग महाप्रभु वितरण करते हैं|३७|
गौर कथा सुनहू हे भाई|
पसु-खग-ब्रिच्छ गलित उर जाई||३८|
अनुवाद: हे भाई! इस गौर कथा को सुनो! (मनुष्य की तो बात ही क्या
है-) पशु,
पक्षी तथा वृक्ष इत्यादि भी जब गौरांग महाप्रभु की कथा को
सुनते हैं तो उन का हृदय कृष्णप्रेम के कारण द्रवीभूत हो जाता है (प्रेम के कारण
उनका चित्त बहने लगता है)|३८|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: चैतन्य चरितामृत में वर्णन है की महाप्रभु जब झारिखंड के
जंगलों से गुज़र रहे थे तो जब उन्होंने कृष्ण नाम कीर्तन किया,
तो जंगल के सभी पशु-पक्षी आपस का वैर भाव भूल कर उनके साथ
कीर्तन करने लगे| सर्प नेवले के साथ, हिरन बाघ के साथ, गाय आदि सिंह के साथ तथा चिड़िया आदि बाज के साथ मिलकर
कृष्णनाम का कीर्तन करने लगे| यहाँ तक की पाषाण भी उनके स्पर्श से पिघल जाते थे|
आज भी पुरी के श्रीजगन्नाथ मंदिर में गरुड़-स्तम्भ के पीछे
एक स्तम्भ पर उनकी तीन उँगलियों के चिन्ह देखे जा सकते हैं|
श्रीअलारनाथ में पतित-पावनी शिला आज भी देखी जा सकती है
जिसपर से वह भगवान् अलारनाथ को दंडवत प्रणाम करते थे तथा उनके शरीर का स्पर्श होने
के कारण वह चट्टान भी पिघल गयी एवं उसके ऊपर उनके शरीर का आकार अंकित हो गया|
गौरहि गीत गौर गुन गाना|
गौर गौर गावहु गुण गाना||३९|
गौर कथा दै प्रेम अपारी|
पुनि पुनि पुनि जइहौं बलिहारी||४०|
अनुवाद: गौरांग महाप्रभु के गीत एवं गौरांग महाप्रभु के
नाम-गुण-लीला समूह का गान करो| गौरांग महाप्रभु की कथा अपार कृष्णप्रेम का दान करने वाली
हैं–
हम इस कथा पर बलिहारी हैं, बलिहारी हैं, बलिहारी हैं|३९-४०|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: गौर-नाम एवं गौर-कथा सुन कर पाषाण के समान ह्रदय भी पिघल
जाता है तथा चित्त सरल हो जाता है| इसीलिए श्रील नरहरि सरकार ठाकुर (कृष्ण लीला में ‘मधुमति’) कहते हैं– गाओ पुनः पुन: गौरान्गेर गुण| सरल हय्या मन|| श्रील नरोत्तम दास ठाकुर भी कहते हैं–
गौरान्गेर नाम लय– ता’र हय प्रेमोदय| ता’र मुइ जाऊं बलिहारी||
|| राग दरबारी ||२|
||
मनहरण घनाक्षरी छन्द ||३|
ऐसो कोनो जीव गौर
कथा सुनि रोवै नाहीं
रोवै न खगान उरै
कोनो आसमान है|
हाय सखा मेरो हियो
बर ही कठोर न ते
कथा सुनै गरै नाहीं
ऐसो को पाहान है||१|
अनुवाद: वह कौन सा जीव है जो गौरांग महाप्रभु की कथा को सुन कर के
कृष्णप्रेम में रोता नहीं है? जो उसे सुन कर भी नहीं रोते– ऐसे पक्षी भला कौन से आकाश में विचरण करते हैं?
हाय सखा! एक मेरा ही हृदय पाषाण से भी कठोर है,
अन्यथा जो गौर कथा को सुन कर गल नहीं जाते,
ऐसे पाषाण भी भला कहीं इस सृष्टि में हैं?|१|
गौरांग चालीसा यह
गौर तत्त्व युक्त भई
कृष्णदास गौर करें
ब्रज प्रेम दान है|
परम पुरुसारथ
ताते लघु चार अर्थ
ऐसो गुरुतम तत्त्व
को ये महागान है||२|
अनुवाद: यह गौरांग चालीसा गौरांग-तत्त्व से युक्त है|
‘कृष्ण दास’
कह रहे हैं की केवल गौरांग महाप्रभु ही ब्रजप्रेम का दान कर
सकते हैं|
यह ब्रजप्रेम ही पंचम पुरुषार्थ है जिसके आगे चार पुरुषार्थ
भी तुच्छ हो जाते हैं| ऐसे ब्रजप्रेम का दान करने वाले भगवान् गौरांग महाप्रभु सभी
तत्त्वों में गुरुतम हैं– यह गौरांग चालीसा ऐसे ही गुरुतम तत्त्व की महामहिमा को
बतलाने वाला महागीत है|२|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: चार अर्थ इस प्रकार हैं– धर्म (शास्त्र के अनुसार धर्ममय जीवन बिताना),
अर्थ (धर्मपूर्वक धन इत्यादि अर्जित करना),
काम (धर्मसम्मत कामनाओं को पूर्ण करना) और मोक्ष (जन्म-मरण
के चक्र से छुटकारा पाना)| साधारण रूप से मनुष्य पहले तीन पुरुषार्थों के ही बारे अधिक प्रयासरत रहते हैं|
कोई कोई मनुष्य ही चौथे पुरुषार्थ ‘मोक्ष’ के लिए प्रयासरत होता है| किन्तु गौर-कथा पांचवें पुरुषार्थ–
कृष्ण-प्रेम के समुद्र का दान करती है जिसके सामने ‘मोक्ष’ भी एक तुच्छ बूंद के समान है| (पंचम पुरुषार्थ प्रेमानन्दामृत सिन्धु|
मोक्षादि आनंद यांर नहे एक बिंदु||
- चै॰च॰ १/७/८५)|
यहाँ तक की भुक्ति और मुक्ति– दोनों ही गौर-कृष्ण के भक्त के सामने हाथ जोड़ कर उसकी आज्ञा
की प्रतीक्षा करती रहती हैं– (मुक्तिः स्वयं मुकुलितांजलि सेवातेSस्मान्| धर्मार्थ-काम-गतय: समय-प्रतीक्षा:–श्रीकृष्णकर्णामृत)| लेकिन गौर-कृष्ण के भक्त उन दोनों की ओर दृष्टिपात तक नहीं
करते|
इसीलिए श्रीचैतन्यचरितामृत (१.९०) में चारों पुरुषार्थों को
‘कैतव’ (कपट) ही कहा गया है| उत्तम महाभागवत इन सब की तनिक भी इच्छा नहीं रखते–
अज्ञान
तमेर नाम कहिये ‘कैतव’|
धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष
वांछा आदि– सब||