|| राग यमन ||१|
|*|
रोला-छन्द |*|१|
दूसर तत्त्व बखान
कहायें नित्यानंदा|
भक्त स्वरूपहि जान
सदा हैं परमानंदा||१| ||विश्राम||
अनुवाद: अब हम पंचतत्त्व में दूसरे तत्त्व का चालीसा-गान कर रहे
हैं–
जिनका नाम ‘नित्यानंद’ है| पञ्चतत्त्व में इन्हें ‘भक्त-स्वरूप’ ही जानिये| नित्यानंद प्रभु परमानंद के मूर्तिमंत स्वरूप हैं|१| ||
विश्राम ||
|*|
चौपाई-छन्द |*|२|
जय बलराम अभिन्न निताई|
जय जाह्नवा पतिहिं प्रभुराई||१|
अनुवाद : बलराम जी से अभिन्न नित्यानंद प्रभु की जय हो! जय हो!
श्रीमती जाह्नवा देवी के पति श्रीमान नित्यानंद प्रभुराय की जय हो|१|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: भगवान् नित्यानंद प्रभु सन १४७४ में बंगाल के बीरभूम ज़िले
के ‘एकचक्र’ नामक धाम में प्रकट हुए| उनका दूसरा नाम है– ‘निताइ’ (केवल छंद-विधान का सम्मान करने के लिए कहीं-कहीं ‘निताई’– इस प्रकार लिखा गया है)| बलराम जी के पिता वसुदेव एवं माता रोहिणी ही अब गौर लीला
में निताइ के पिता ‘श्रीमान हड़ाइ पंडित प्रभु’ तथा माता ‘श्रीमती पद्मावती देवी’ हुए हैं| भगवान् कृष्ण ने जो पुराणों में वचन दिया था,
उसी वचन को उनकी आज्ञा मान कर ही श्रीबलराम अब ‘नित्यानंद प्रभु’ के रूप में प्रकट हो गए|
अथर्ववेद की अनंत-संहिता में आया है–
नित्यानन्दो
महाकायो भूत्वा मत्कीर्तने रतः| विमूढ़ान्भक्तिरहितान् मम भक्तान् करिष्यसि||
दिव्य महाकाया से युक्त नित्यानंद प्रभु मेरे नाम-संकीर्तन
में सदा रत रहेंगे| मेरी भक्ति से रहित जो अत्यंत विमूढ़ एवं पापिष्ठ जन हैं–
उन्हें भी मेरी भक्ति प्रदान करके मेरा भक्त
(गौरकृष्ण-भक्त) बना देंगे| वायु-पुराण में स्वयं श्रीकृष्ण कहते हैं–
बलरामो
ममैवांशसोSपि मत्प्रेष्ठमेष्यति| नित्यानंद इति ख्यातो न्यासी चूड़ामणि: क्षितौ||
भगवान् बलराम– जो की मुझ से अभिन्न मेरे प्रथम विस्तार हैं–
वे भी मेरे संग ‘नित्यानंद’ नाम से कलियुग में प्रकट होंगे|
वे धरती पर सभी संन्यासियों के चूड़ामणि के रूप में जाने
जायेंगे|
जय जय सेवक-विग्रह रूपा|
सेव्य-गौर को दास अनूपा||२|
अनुवाद : सेवक विग्रह रूप प्रभु की जाया हो| आप अपने सेव्य गौरांग
महाप्रभु के दास हैं|२|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: भगवान् कृष्ण स्वयं दो रूपों में प्रकट होते हैं–
(१) सेव्य
रूप–
जो सभी के द्वारा सेवित हैं अथवा सभी के द्वारा सेवा किये
जाने योग्य हैं| कृष्ण ही सेव्य रूप हैं| (२) सेवक रूप–
भगवान् स्वयं अपने ही सेवक के रूप में अपना विस्तार करते
हैं|
नित्यानंद-बलराम ही भगवान् के सेवक रूप हैं|
जय जय नित्य गौर कउ संगी|
सेवहिं गौरहु नाना रंगी||३|
अनुवाद : गौरांग महाप्रभु के नित्य संगी की जय हो! जय हो! आप गौरांग
महाप्रभु की विभिन्न प्रकार से सेवा करते हैं|३|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: सेवक-विग्रह होने के कारण ही नित्यानंद-बलराम अपने
सेव्य-विग्रह गौर-कृष्ण की सदा सेवा में रत रहते हैं|
गौर-कृष्ण अवतारिन आकर|
आदि पुरुस विस्तार प्रभाकर||४|
अनुवाद : गौर-कृष्ण सभी अवतारों के मूल स्त्रोत हैं|
वे आदि पुरुष ही स्वरूप विस्तार तथा लीला का विस्तार इस
प्रकार करते हैं जैसे प्रभाकर (सूर्य) अपने प्रकाश का विस्तार करते हैं|४|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: गौर-कृष्ण सभी अवतारों के उद्गम स्थल हैं–
इसीलिए उन्हें ‘अवतारी-पुरुष’ कहा गया है| श्रीब्रह्म संहिता (११) में कहा गया है– “रामादि मूर्तिषु कला नियमेन तिष्ठन्
नानावतारमकरोद्भुवनेषु किन्तु| कृष्ण: स्वयं संभवत् परम: पुमान् यो गोविन्दमादिपुरुषं तमहं
भजामि||”
जो अपनी कलाओं से राम आदि अनेक अवतारों को भुवन में
प्रकाशित करते हैं, किन्तु (द्वापर में) स्वयं अपने पूर्ण परब्रह्म परमेश्वर
रूप से प्रकट होते हैं– में उन आदि पुरुष गोविन्द का भजन करता हूँ|
अथर्ववेद के गोपाल तापिनी उपनिषद में आता है–
“तद्युहोवाच ब्रह्मण:|| कृष्णो वै परमं दैवतं|| गोविन्दं मृत्युर्भिभेति|| गोपीजनवल्लभज्ञानेनं तज्जग्यानं||”– अर्थात– ब्रह्माजी कहते हैं– कृष्ण ही सभी देवताओं के एकमात्र स्वामी परमदेव हैं|
उन गोविन्द से मृत्यु भी भयभीत होती है|
उन गोपीजनवल्लभ को जान लेने पर और कुछ भी जानना शेष नहीं
रहता|
'स्वयं-रूप'- असि बेद
बखाने|
सोहि अभिन्न 'स्वांश' उपजाने||५|
अनुवाद : सभी वेद कहते हैं की भगवान् कृष्ण ही ‘स्वयं-रूप’ हैं तथा उनसे ही ‘स्वांश’ रूप प्रकाशित होते हैं|५|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: भगवान् के पूर्णतम रूप जो सभी अवतारों का मूल रूप हैं–
उन्ही को ‘स्वयं रूप’ कहा जाता है| ‘स्वयं रूप’ से दो प्रकार के स्वरूप प्रकाशित होते हैं (१) स्वांश–
भगवान् की स्वरूप-शक्ति से सभी अवतार प्रकाशित होते हैं
जिन्हें ‘स्वांश’ कहा जाता है| सभी अवतार भगवान् के ही समान पूजनीय हैं क्योंकि भगवान् तथा
उनके स्वांश-अवतारों में तत्त्वत: कोई अंतर नहीं होता|
भगवान् के अवतार भी ‘भगवान्’ ही होते हैं| (२) विभिन्नांश–
जो भगवान् की ‘तटस्था’ नामक शक्ति से उत्पन्न हुए हैं तथा भगवान् और उनमें सनातन
भेद रहता है– वे ‘जीव’ ही भगवान् से पृथक अंश (विभिन्नांश) हैं|
ममैवांशो जीव लोके जीव भूत: सनातन:–
संसार में सभी जीव ही मेरे सनातन अंश हैं(गीता १५/७)–
यहाँ ‘सनातन’ शब्द का अर्थ है की सभी जीव माया-बद्ध-दशा एवं
माया-मुक्त-दशा– दोनों दशाओं में भगवान् से सदा ही पृथक अंश बने रहते हैं|
निराकारवादी कहते हैं की मुक्ति के बाद जीव परमात्मा से मिल
कर परमात्मा से अभिन्न हो जाता है– लेकिन गीता का यह श्लोक निराकार-वादियों की इस बात का स्वयं
ही खंडन करता है|
प्रथम अभिन्न रूप बलरामहि|
सेवक-सेव्य– एक भगवानहि||६|
अनुवाद : उन्हीं भगवान् कृष्ण से ही प्रथम अभिन्न स्वांश रूप बलराम
प्रकट होते हैं| कृष्ण तथा बलराम– यह दोनों एक ही भगवान के दो रूप हैं–
उनमें से भगवान् कृष्ण (तथा गौरांग महाप्रभु) तो
सेव्य-विग्रह हैं और भगवान् बलराम जी (तथा नित्यानंद प्रभु) सेवक-विग्रह हैं|६|
नाम-रूप को भेद द्विरूपा|
अन्यथा एक तत्त्व अनूपा||७|
अनुवाद : कृष्ण-बलराम (गौरांग-नित्यानंद) में केवल रूप और भाव का ही
भेद है,
अन्यथा दोनों रूप तत्त्वत: एक ही हैं|७|
रूप विखंडित कबहु न ह्वै हैं|
सच्चिदानंद– बेद कहै हैं||८|
अनुवाद : भगवान् का रूप कभी भी विखंडित नहीं होता (क्योंकि) भगवान्
का रूप ‘सच्चिदानंद’ है– वेद इस बात को कहते हैं|८|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: भगवान् अनंत रूपों में प्रकट होते हैं–
इसका अर्थ कोई भी यह न समझे की भगवान् का मूलरूप विखंडित हो
जाता है–
नहीं!– ऐसा कदापि नहीं होता क्योंकि भगवान् का शरीर जीवों के शरीर
की तरह माया का बना हुआ नहीं है– वह सच्चिदानंद हैं| ब्रह्म संहिता में कहा गया है–
“ईश्वर: परम: कृष्ण: सच्चिदानंद विग्रह:”–
अर्थात– कृष्ण ही एकमात्र परम-ईश्वर हैं तथा उनका विग्रह सच्चिदानंद
रूप है|
नित्यानंद विविध कर रूपा|
प्रकटहिं रूप अनंत अनूपा||९|
अनुवाद : वे नित्यानंद-बलराम ही (गौर-कृष्ण की सेवा के लिए) विविध
अनंत एवं अद्भुत रूपों को प्रकट करते हैं|९|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: भगवान् की तीन प्रकार की शक्तियां हैं–
(१)
अंतरंगा– जिससे आध्यात्मिक जगत प्रकाशित होता है (२) तटस्था–
जिससे विभिन्नांश जीव प्रकाशित होते हैं (३) बहिरंगा–
जिससे माया जगत प्रकाशित होता है|
अंतरंगा शक्ति तीन प्रकार की है–
(क) संवित– जिससे भगवान् अपने स्वांश रूप प्रकाशित करते
हैं| (ख) संधिनी–
जिससे भगवान् के धाम तथा वहां की वस्तुएं प्रकाशित होती हैं
(ग) आह्लादिनी–
भगवान् को भी आह्लादित करने वाली आह्लादिनी शक्ति स्वरूपा
राधारानी|
इन तीन शक्तियों के स्वामी होने के कारण भगवान् का नाम है– “त्रिशक्ति-धृक्”|
इसीलिए भागवतम् (२/६/३१) में कहा गया है–
“विश्वं पुरुष रूपेण परिपाति त्रिशक्तिधृक्”
धाम, सिंहासन, पद कउ चौकी|
मुकुट, ब्रिच्छ, उपकरन अलौकी||१०|
अनुवाद : भगवान् कृष्ण का धाम (उस की भूमि),
उनके बैठने का सिंहासन, उनके पद रखे के लिए चौकी, उनका मोर-मुकुट, धाम के वृक्ष-लता तथा (अन्य बांसुरी आदि) अनेक अलौकिक लीला
के उपकरण–
|१०|
सोहि राम निज रूप कु लेवहिं|
सोहि राम प्रभु जू कै सेवहिं||११|
अनुवाद : नित्यानंद-राम ही स्वयं ऐसे अनेक रूपों को रचते हैं तथा उन
रूपों में भगवान् गौर-कृष्ण की सेवा करते हैं|१०-११|
सोहि प्रथम चतुर्व्यूह रूपा|
करैं विस्तार बहु बिधि रूपा||१२|
अनुवाद : नित्यानंद-बलराम ही (गोलोक धाम में) प्रथम चतुर्व्यूह को
प्रकाशित करते हैं तथा अनेक प्रकार से अपने स्वरूप का विस्तार करते हैं|१२|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: गोलोक में प्रथम चतुर्व्यूह प्रकाशित होता है जिसमें चार
चतुर्भुज विष्णु-मूर्तियाँ प्रकाशित होती हैं– वासुदेव, मूल-संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध|
पुनि हरि कोटि चतुर्भुज रूपा|
सजहिं बैकुंठ दिव्य अनूपा||१३|
अनुवाद : नित्यानंद-बलराम ही अनेक वैकुण्ठ लोकों को प्रकाशित करते
हैं तथा प्रत्येक वैकुण्ठ लोक में वे ही चतुर्भुज विष्णु रूप हो कर विराजमान होते
हैं|१३|
द्वितीय चतुर्व्यूह सो लेवहिं|
सबहि रूप ते हरि के सेवहिं||१४|
अनुवाद : उन्हीं सभी वैकुण्ठ लोकों में वे पुनः अपने द्वितीय
चतुर्व्युह को प्रकाशित करते हैं| वे नित्यानंद-बलराम सब रूपों में गौर-कृष्ण की सेवा करते
हैं|१४|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: प्रत्येक वैकुण्ठ में दूसरी चतुर्भुज-रूप चतुर्व्यूह
मूर्ति प्रकाशित होती है– वासुदेव, महा-संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध|
तिनि ते प्रथम पुरुस अवतारा|
कारन जलनिधि कीन्ह पसारा||१५|
अनुवाद : नित्यानंद-बलराम से ही प्रथम पुरुष अवतार (कारणोदक्षायी
महाविष्णु) अवतार लेते हैं| वे महाविष्णु कारण नामक समुद्र में शयन करते हैं|१५|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: साधारण तौर पर सभी यही मानते हैं की कृष्ण विष्णु के अवतार
हैं|
किन्तु सत्य यही है की विष्णु कृष्ण के केवल कला-अवतार हैं|
ब्रह्म संहिता ५/४८ में कहा गया है–
यस्यैक
निश्वसितकालमथावलम्य जीवंति लोम विलजा जगदण्डनाथ:|
विष्णुर्महान्
स इह यस्य कला विशेषो गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि||
जिनके केवल एक श्वास काल में ही जगत्पिता ब्रह्मा जी का
सम्पूर्ण जीवन काल समाप्त हो जाता है (मनुष्यों के ३११,०४०,०००,०००,००० वर्ष) ऐसे सब से महान भगवान् विष्णु भी जिन गोविन्द के
केवल एक कला-अवतार ही है, ऐसे आदि पुरुष गोविन्द का मैं भजन करता हूँ|
गोविन्द बलराम जी के द्वारा ही अपने स्वरूप का विस्तार करके
विभिन्न प्रकार के अवतार धारण करते हैं|
कोटि कोटि ब्रह्माण्ड अपारा|
सोही रोम छिद्र उपजारा||१६|
अनुवाद : कारणोदक्षायी महाविष्णु के रोम छिद्रों से ही अनंत कोटि
ब्रह्माण्ड उपजते हैं|१६|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: ब्रह्माण्ड का आकार अंडे के समान है तथा प्रत्येक
ब्रह्माण्ड सात आवरणों से ढका हुआ है| प्रत्येक आवरण पहले आवरण से दस गुणा मोटा है (एतदण्डं
विशेशाख्यं क्रमवृद्धैर दशोत्तरै:– भागवतम् ३/२६/५२)| प्रत्येक ब्रह्माण्ड में करोड़ों-करोड़ों शिशुमार-चक्र अथवा
आकाशगंगाएं हैं (पृष्ठे त्वजवीथी आकाशगंगा चोदरतः– भागवतम् ५/२३/५)| एक-एक आकाशगंगा में करोड़ों-करोड़ों नक्षत्र एवं तारामंडल हैं,
जैसे पुरुष के शरीर पर अनगिनत रोमछिद्र होते हैं
(सर्वांगेषु रोमसु सर्वे तारागणा:– भागवतम ५/२३/७) प्रत्येक शिशुमारचक्र अथवा आकाशगंगा कुण्डली
के आकार की है– जैसे एक कोई सर्प अथवा जलजंतु कुण्डली लगा कर बैठता है
(यस्य पुच्छाग्रेSवाक् शिरस: कुण्डलीभूत देहस्य–
भागवतम् ५/२३/५)| एक-एक तारा-मण्डल में करोड़ों-करोड़ों ग्रह हैं जो काल के
आधीन हो कर प्रलय होने तक चक्र काटते रहते हैं (ग्रहादय: एतस्मिन्नन्तर्बहिर्योगेन
कालचक्र आयोजिता– भागवतम् ५/२३/३)| उन करोड़ों- करोड़ों ग्रहों में पृथ्वी केवल एक ही ग्रह है|
दूसर ब्रह्म अण्ड के भीतर|
गर्भोदक निधि शयन निरंतर||१७|
अनुवाद : नित्यानंद-बलराम से ही प्रत्येक ब्रह्माण्ड के गर्भ में
द्वितीय पुरुष अवतार (गर्भोदक्षायी महाविष्णु) अवतार लेते हैं|
वे महाविष्णु गर्भोदक नामक समुद्र में शयन करते हैं|१७|
तिनि ते प्रथम जीव उपजहिहैं|
तिनि हि 'बिरंचि' बेद असि कहिहैं||१८|
अनुवाद : (सृष्टि की शुरुआत में) गर्भोदक्षायी महाविष्णु ही
प्रत्येक ब्रह्माण्ड में अपने नाभि-कमल से प्रथम जीव की उत्पत्ति करते हैं|
इन्हीं प्रथम जीव को वेदों में ‘विरिंचि’ (सृष्टिकर्ता ब्रह्मा जी) कहा गया है|१८|
तीसर पुरुस सबै घट भीतर|
क्षीरोदक निधि शयन निरंतर||१९|
अनुवाद : नित्यानंद-बलराम से ही तृतीय पुरुष अवतार (क्षीरोदकक्षायी
महाविष्णु) प्रकट होते हैं| यही महाविष्णु ही ब्रह्माण्ड में बसने वाले सभी जीवों के
ह्रदय में तथा प्रत्येक परमाणु में ‘परमात्मा’ के रूप में निवास करते हैं| वे महाविष्णु क्षीर समुद्र में शयन करते हैं|१९|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: आजकल के प्राय: नास्तिक लोग यही सोचते हैं की ब्राह्मांड
की सृष्टि केवल परमाणुओं के आपसी समन्वय के कारण हुई है–
किन्तु न तो वे परमाणुओं के मूलस्त्रोत का पता लगा पाते हैं;
न ही वे परमाणुओं के चमत्कार-पूर्ण आपसी समन्वय का कारण जान
पाते हैं|
वस्तुत: बिना भगवान् की शक्ति के न तो परमाणु और न ही
ब्रह्माण्ड आदि की उत्पत्ति संभव है, और न ही उनमें समन्वय संभव है|
भगवान् की ही अविचिंत्य शक्ति से ही परमाणु,
अणु, पृथ्वी-सूर्य-चन्द्र आदि अनंत-अनंत लोक,
आकाशगंगाएं और ब्रह्माण्ड उन्हीं की बनायी हुई व्यवस्था के
अनुसार चक्र लगा रहे हैं| ब्रह्मसंहिता ५/७ में इस बात की पुष्टि हुई है की भगवान् ही
बड़े से बड़े ब्रह्माण्ड और छोटे से छोटे परमाणुओं में प्रविष्ट हैं–
“अण्डान्तरस्थ परमाणु चयांतरस्थं गोविन्दमादिपुरुषं तमहं
भजामि”–
जो भगवान् प्रत्येक ब्रह्माण्ड में तथा प्रत्येक परमाणु में
प्रविष्ट हो कर उनका संचालन कर रहे हैं– ऐसे गोविन्द का मैं भजन करता हूँ|
जब जब हरि जू लैं अवतारा|
तब तब सेवक रूप तोहारा||२०|
अनुवाद : भगवान् कृष्ण जब जब अवतार धारण करते हैं,
तब तब बलराम जी उनके सेवक के रूप में प्रकट होते हैं|२०|
त्रेता राम रूप अवतारा|
अनुज भ्रात को रूप उपारा||२१|
अनुवाद : जब भगवान् त्रेता युग में राम रूप से प्रकट हुए तब बलराम
जी भी उनके अनुज भ्राता (लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न) के रूप में प्रकट हुए|२१|
द्वापर प्रकटहि निज भगवाना|
सखा-भ्रात को रूप उपाना||२२|
अनुवाद : द्वापर युग में तो ‘भगवान् स्वयं’ ही प्रकट हो गए| उस समय भी बलराम जी उनके बड़े भ्राता और सखा के रूप में
प्रकट हुए|२२|
कलिजुग प्रथम चरण जब पावहिं|
सो ही कृष्ण गौर बनि आवहिं||२३|
अनुवाद : कलियुग के प्रथम चरण में कृष्ण ही भगवान् गौरसुन्दर बन
करके प्रकट होते हैं|२३|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: कलियुग का काल ४,३२,००० साल का है जिसके चार चरण में अधर्म की क्रमश: वृद्धि
होती है|
प्रत्येक चरण १०,८००० साल का होता है| इसमें से प्रथम चरण के पहले ५००० साल बीतने के पश्चात
गौर-अवतार होता है तथा तब से कलियुग का स्वर्णिम काल शुरू होता है,
जो की अगले १०,००० साल तक चलता है| इसी १०,००० साल के काल में ही कलियुग में भगवन्नाम कीर्तन सुनाई
देता है|
उसके पश्चात सनातन वैदिक धर्म का अधिकतर लोप हो जाता है और
सम्पूर्ण मनुष्य-जाति ही ‘चंडाल-जाति’ बन जाती है| गौरांग महाप्रभु का अवतार हुए लगभग ५०० साल का समय गुज़र
चुका है तथा कलियुग के पहले ५००० साल बीत चुके हैं| अत: इस समय कलियुग का स्वर्णिम काल चल रहा है|
ब्रह्मवैवर्त-पुराण में इस का विषद वर्णन मिलता है–
“कलेर्दश-सहस्त्राणि मद्भक्तः संति भूतले|
एकवर्ण भविष्यन्ति मद्भक्तेशु गतेषु च||”– श्रीकृष्ण देवी गंगा से कह रहे हैं–
कलियुग के केवल दस हज़ार सालों में ही मेरे भक्त इस पृथ्वी
पर रह कर इसको धन्य करेंगे| लेकिन मेरे भक्त जब इस पृथ्वी को छोड़ कर चले जायेंगे तब
भविष्य में पृथ्वी पर केवल एकवर्ण (चंडाल-वर्ण) ही रह जाएगा|
कृष्ण अवतार गौर न भाई|
एकहु तत्त्व जानिहौं ताई||२४|
अनुवाद : हे भाई ! गौरांग महाप्रभु को भगवान् कृष्ण का अवतार मत
समझो|
दोनों को एक ही तत्त्व जानो|२४|
श्री को भावास्वादन हेतू|
नामहिं कीर्तन वितरण हेतू||२५|
अनुवाद : श्रीमती राधारानी के भावों का आस्वादन करने के लिए तथा
कलियुग के लोगों को हरिनाम संकीर्तन का दान करने के लिए –
|२५|
कृष्णहु धरैं गौर अवतारा|
बंग महि नवद्वीप पधारा||२६|
अनुवाद : भगवान् कृष्ण ही बंगाल के नवद्वीप धाम में गौरांग-रूप में
प्रकट हो जाते हैं|२६|
तबहीं राम निताई रूपा|
'एकचक्र' प्रकटहहिं
अनूपा||२७|
अनुवाद : गौर अवतार के समय भी भगवान् की सेवा करने के लिए बलराम ‘नित्यानंद प्रभु’ के रूप में बंगाल के ‘एकचक्र’ नामक अद्भुत धाम में प्रकट हो जाते हैं|२७|
ताल-मृदंग-झांझ बजवाना|
लीला के उपयोगी नाना||२८|
अनुवाद : हरिनाम संकीर्तन प्रचार लीला के लिए करताल,
मृदंग एवं झांझ इत्यादि जितने भी वाद्य यन्त्र हैं–
|२८|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: इसीलिए गौड़ीय वैष्णव कीर्तन में मृदंग बजाने से पहले बलदेव
जी को प्रणाम करते हैं– मृदंग ब्रह्मरूपाय लावण्य रस माधुरी|
सहस्त्र गुण संयुक्तं बलदेवाय नमो: नमः||–
जो स्वयं ब्रह्म रूप हैं तथा सहस्त्रों दिव्य गुणों
(ताल-आदि) से युक्त हैं, जो अनेक प्रकार की मधुर ध्वनि से युक्त लावण्य रस माधुरी को
प्रकट करते हैं– ऐसे बलदेव जी से अभिन्न श्रीमृदंग को मैं नमस्कार करता हूँ|
नित्यानंद सबहि कउ साहिब|
लीला हेतु रूप लै आहिब||२९|
अनुवाद : सब जीवों के स्वामी नित्यानंद प्रभु उन वाद्यों का रूप
धारण कर के गौर-कृष्ण की सेवा करते हैं|२९|
शक्ति: शक्तिमतोर अभेदा|
कहहिं सुनहिं असि संतन वेदा||३०|
अनुवाद : सभी संत तथा वेद इस बात को कहते हैं की शक्ति तथा शक्तिमान
में कोई भी अंतर नहीं है|३०|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: जैसे अग्नि और उसकी दाहिका शक्ति में अंतर नहीं है वैसे ही
भगवान् तथा उनकी शक्तियां उनसे अभिन्न हैं| इसीलिए श्रुति कहती है– “शक्ति: शक्तिमतोSर्भेदः”|
तिनि की शक्ति अनंग-मंजरी|
रास केलि में रास सहचरी||३१|
अनुवाद : उन्हीं नित्यानंद प्रभु की शक्ति अनंग मंजरी के रूप में
रास लीला में कृष्ण की सहचरी बन कर सम्मिलित होती हैं|३१|
तिनि की कृपा बिनहु हे भाई|
राधा-कृष्ण मिलहु के नाई||३२|
अनुवाद : हे भाई! नित्यानंद प्रभु की कृपा के बिना किसी को भी
राधा-कृष्ण नहीं मिलते|३२|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: बलराम स्वयं ‘बलराम’ रूप से भले ही रास लीला में कभी प्रवेश नहीं करते,
किन्तु वे अपनी शक्ति ‘अनंग-मंजरी’ तथा कुञ्ज, लताओं के रूप में रास-लीला में सदा ही उपस्थित रहते हैं|
श्रील नरोत्तम दास ठाकुर कहते हैं–
“हेन निताइ बिना भाई, राधा कृष्ण पाइते नाइ| दृढ करी धर निताये’र पाय||” अर्थात– नित्यानंद प्रभु की कृपा के बिना किसी को भी राधा-कृष्ण
नहीं मिल सकते– इसीलिए दृढ़ता से उनके चरणों की शरण ग्रहण करो|
देवों के गुरु बृहस्पति ही अब गौर लीला में श्रील सार्वभौम
भट्टाचार्य के रूप में प्रकट हुए हैं तथा उन्होंने नित्यानंद अष्टोत्तरशत
नामस्तोत्र की रचना की है| इस स्तोत्र में वे कहते हैं– “प्रेमानंदी रसानंदी राधिका-मंत्रदो विभु:”–
अर्थात नित्यानंद प्रभु राधा-कृष्ण की प्रेममयी-लीला में
निमग्न रहने वाले ‘प्रेमानंदी’, माधुर्य-रस-लीला के आनंद में निमग्न ‘रसानंदी’ एवं ‘राधिका-मंत्रदो विभु:’– श्रीमति राधिका का सेवाधिकार-मंत्र प्रदान करने वाले विभु
(गुरु) हैं )|
नामी नाम भेद किछु नाहीं|
गौर-निताइ जानिहौं ताहीं||३३|
अनुवाद : नामी तथा नाम में कुछ भी भेद नहीं है|
गौरांग एवं नित्यानंद प्रभु के बारे में भी ऐसा ही जानो|३३|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: श्रुति कहती है– अभिन्नत्वं नाम नामिनो:– नाम और नामी भगवान् में कोई अंतर नहीं है|
इसी सिद्धांत के अनुसार जो नित्यानंद हैं–
वही ‘नित्यानंद’ नाम है और जो गौरांग हैं– वही ‘गौरांग’ नाम है| अतः जब कोई नित्यानंद नाम एवं गौरांग नाम का आश्रय लेता है
तब वह साक्षात नित्यानंद एवं गौरांग का ही आश्रय लेता है|
कृष्ण नाम अपराध विचारे|
गौर-निताइ नाम सब तारे||३४|
अनुवाद : कृष्ण-नाम जीवों के अपराधों का विचार करते हैं किन्तु
गौरांग एवं नित्यानंद प्रभु के नाम जीवों के अपराधों का कोई विचार नहीं रखते|३४|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: शास्त्रों में दस नाम-अपराध, दस सेवा-अपराध एवं दस ही धाम-अपराध बताये गए हैं|
जो व्यक्ति हरेकृष्ण महामंत्र का कीर्तन एवं जप करता है–
यदि उसके अपराध निवृत्त नहीं हुए हैं,
तो उन अपराधों को
श्रीकृष्ण, कृष्ण-नाम, कृष्ण-कथा और कृष्ण-धाम देखते हैं (आसानी से क्षमा नहीं
करते)|
अत: अनर्थकारी अपराधी व्यक्ति यदि इन सब का सेवन चिरकाल तक
करता रहे तो भी उसका ह्रदय द्रवित नहीं होता| लेकिन निताइ-गौर नाम-कथा-धाम आदि इन सब अपराधों के होते हुए
भी कृष्ण-प्रेम का दान कर देते हैं तथा अपराध करने की प्रवृत्ति का भी नाश करते
हैं|
चैतन्य चरितामृत १/८/३१ में कहा गया है–
चैतन्य नित्यानन्दे नाहीं ए सब विचार,
नाम लइते प्रेम देन बहे अश्रुधार–
अर्थात् गौरांग तथा नित्यानन्द प्रभु अपराधों का विचार कभी
नहीं करते, अतः केवल उनके मात्र नाम लेने से ही जीव के नेत्रों से
विशुद्धप्रेम-पूरित अश्रुधार प्रवाहित होती है| और भी कहते हैं– श्रीचैतन्य-अवतारे बड़ विलक्षण|
अपराधसत्त्वे जीव लभे प्रेमधन|–
भगवान् के सभी अवतारों में चैतन्य अवतार सब से विलक्षण हैं
क्योंकि वे अपराधी जीव को भी कृष्ण प्रेमधन प्रदान कर देते हैं|
जो महाभाग्यवान भक्त निताइ-गौर नाम का जप तथा कीर्तन करते
हैं,
उन्हें कृष्ण-प्रेम प्राप्त करने के लिए कोई उद्योग नहीं
करना पड़ता, क्योंकि कृष्ण-प्रेम तो स्वयं ही ऐसे भक्त को ढूंढता फिरता
है|
श्रील भक्तिविनोद ठाकुर कहते हैं–
निताइ-चैतन्य बलि’ जेइ जीव डाके| सुविमल कृष्णप्रेम अन्वेषये ता’के||
श्रीचैतन्य चरितामृत ३.२.२४-३१ में वर्णन है की चार-अक्षर
का गौर-गोपाल-मंत्र (‘गौ-रा-ञ्-ग’) श्रील शिवानन्द सेन का इष्ट-मन्त्र है–
गौर-गोपाल मंत्र तोमार चारि अक्षर|
कृष्ण लीला में जो वीरा नाम की दूती-गोपी (राधा-कृष्ण में
परस्पर समाचार पहुंचाने वाली गोपी) हैं, वे ही अब गौर लीला में श्रील शिवानन्द सेन
बने हैं| श्रील भक्तिविनोद ठाकुर अपने अमृत-प्रवाह-भाष्य में
गौर-गोपाल-मंत्र के बारे में बताते हैं– गौर-भक्त चार अक्षर युक्त ‘गौ-रा-ञ्-ग’ को अपना इष्ट मन्त्र मानते हैं तथा केवल राधा-कृष्ण के
प्रति एकनिष्ठ भक्त चार अक्षर युक्त ‘रा-धा-कृष्-ण’ को अपना इष्ट मन्त्र मानते हैं|
लेकिन सभी वैष्णव गौरांग तथा राधा-कृष्ण को अभिन्न मानते
हैं,
इसीलिए जो भक्त ‘गौरांग’ मन्त्र का जप करते हैं तथा जो राधाकृष्ण के नाम का जप करते
हैं–
वे सभी भक्त समान स्तर पर हैं|
यही ‘गौरांग’ मन्त्र भगवान् शिव ने पार्वती जी को भी दिया था|
इसको प्राप्त कर के देवी पार्वती कहती हैं–
एइ त’ जे शुनेछी मंत्र-तंत्र तत्काल|
से सब जानिनु मात्र जीवेर जंजाल||–
हे देव! अभी तक मैंने जो भी मंत्र-तंत्र देखे-सुने थे,
अब तो वह सब ही मुझे जीव के लिए केवल व्यर्थ के जंजाल ही
लगते हैं|
इसी तरह से श्रील कृष्णदास कविराज गोस्वामी चैतन्य चरितामृत
(१/८/२३) में ‘नित्यानंद’ नाम की महिमा बताते हुए कहते हैं–
‘नित्यानंद’
बलिते हय कृष्ण-प्रेमोदय| औलाय सकल अंग अश्रुगंग वय||– अर्थात– ‘नित्यानंद’ नाम लेने मात्र से ही जप करने वाले भक्त के ह्रदय में
कृष्ण-प्रेम का उदय होने लगता है, उस प्रेम के उन्माद के कारण देह के सभी अंग कम्पित होने
लगते हैं तथा गंगा की धारा के समान नेत्रों से अश्रु बहते रहते हैं|
अत: सुन्दर मेधा से युक्त भक्त हरेकृष्ण महामंत्र के
साथ-साथ नित्यानंद नाम एवं गौरांग नाम का आश्रय भी प्रयत्नपूर्वक ग्रहण करते हैं|
जद्दपि गौर महा किरपाला|
सब को प्रेम देहिं सब काला||३५|
अनुवाद : वैसे तो गौरांग महाप्रभु महाकृपालु हैं तथा सभी जीवों को
सब समय कृष्ण-प्रेम का दान करते हैं – |३५|
जिनको गौर कृपा ना मिलिहैं|
ताहि निताइ प्रेमरस दिलिहैं||३६|
अनुवाद : लेकिन जिन जीवों पर गौरांग कृपा नहीं करते,
उन जीवों पर भी नित्यानंद प्रभु प्रेमरस की वर्षा करते हैं|३६|
सो साहिब सबहिं ते कृपाला|
तारहिं म्लेच्छ यवन विकराला||३७|
अनुवाद : हमारे स्वामी नित्यानंद प्रभु जीव मात्र पर कृपा करते हैं|
यहाँ तक की विकराल पापिष्ठ म्लेच्छों और यवनों तक को कृष्ण
प्रेम का दान कर देते हैं|३७|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: कृष्ण ‘न्यायधीश’ कहलाते हैं क्योंकि वे जीवों के अपराध के स्तर के अनुसार
जीव को फल प्रदान करते हैं| असुरों का वध कर के उन्हें निराकार-ब्रह्म-सायुज्य-मुक्ति
प्रदान करते हैं और भक्तों को धाम प्रदान करते हैं| किन्तु श्रीमती राधिका ‘कृपाधीशा’ हैं– वे केवल कृपा ही करना जानती हैं–
कभी भी किसी असुर इत्यादि को दंड प्रदान नहीं करतीं|
वे राधा-कृष्ण ही मिलित-तनु ले कर ‘गौरांग’ रूप में प्रकट होते हैं– अत: गौरांग ‘न्याय-कृपाधीश’ हैं– वे कृपा भी न्याय के अनुसार करते हैं|
इसीलिए गौरलीला में नित्यानंद प्रभु ‘केवल-कृपाधीश’ के रूप में प्रकट हो कर सब पर केवल कृपा ही बरसाते हैं और
कृष्ण प्रेम का दान करते हैं| वे अधिकार-अनाधिकार अथवा गुण-दोष को नहीं देखते|
नित्यानंद ऐसहहु साहिब|
सेवक-सेव्य रूप धरि आहिब||३८|
अनुवाद : नित्यानंद प्रभु ऐसे स्वामी हैं जो सेव्य और सेवक–
दोनों रूप धारण करते हैं|३८|
सेवक रूपे हरि जू सेवहिं|
तिनि कहु जीव सेव्य कर सेवहिं||३९|
अनुवाद : सेवक के रूप में वे भगवान् गौर-कृष्ण की सेवा करते हैं तथा
सेव्य के रूप में वे सभी जीवों के द्वारा सेवा किये जाने योग्य हैं|३९|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: नित्यानंद प्रभु को जो ‘सेवक-विग्रह’ कह कर संबोधित किया गया है,वह केवल उनके स्वामी गौरांग महाप्रभु तथा उनके परिप्रेक्ष्य
में कहा गया है| किन्तु नित्यानंद प्रभु तथा जीवों के परिप्रेक्ष्य में
नित्यानंद प्रभु सभी जीवों के ‘सेव्य-विग्रह’ हैं (उनके द्वारा सेवा किये जाने योग्य हैं) तथा उनके
भक्त-वैष्णव ही ‘सेवक-विग्रह’ हैं|
मम साहिब जी गौर दास हैं|
दास रिदै बस यहहि आस हैं||४०|
अनुवाद : हमारे स्वामी नित्यानंद प्रभु गौरांग महाप्रभु के सेवक हैं–
दास के ह्रदय में बस इसी बात की आस (भरोसा) है|४०|
|| राग दरबारी ||२|
||
मनहरण घनाक्षरी छन्द ||१||
जगाइ मधाइ तोपे
मटुकि लै मारि दइ
सों को तुमि तारि
दियो गौर प्रेम दान है|
मो सो खल कामी काहे
भव मांही छाड़ि दइ
मो सो तरै गौर जस
गावैगो जहान है||१|
अनुवाद : जागाइ तथा माधाइ ने मटकी ले कर आप के सिर पर उससे आघात
किया था,
इतने पर भी आपने बदले में उन दोनों को गौर-कृष्ण प्रेम का
दान दिया|
फिर मुझ जैसे खल कामी को ही आपने इस भव सागर में क्यों छोड़
दिया?
यदि मेरे जैसा पतित भी आपके द्वारा तर जाए तो यह संसार
गौरांग महाप्रभु की महिमा का गुणगान करेगा| |१|
चालीसा निताइ को ये
अति अदभुत भई
कृष्णदास नित पाठ
करें भाग्यवान हैं|
महानाम महाबल
महाप्रेम महोज्ज्वल
महाकृपा महाकरें
महिमा महान हैं||२|
अनुवाद : यह नित्यानंद चालीसा बहुत ही अद्भुत है,
‘कृष्ण दास’
कह रहे हैं की जो कोई भी इस चालीसा का नित्य पाठ करते हैं
वे बड़े ही भाग्यवान | करुणानिधान नित्यानंद प्रभु सभी पाठकों पर महानाम,
महाबल, उन्नतोज्ज्वल महाप्रेम तथा महाकृपा की वर्षा करते हैं तथा
उनकी महिमा महान है|२|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: वैकुण्ठ के ‘जय’ और ‘विजय’ नामक द्वारपाल जो पहले नृसिंह-अवतार में हिरण्याक्ष और
हिरण्यकशिपु हुए, राम-लीला में जो रावण और कुम्भकरण हुए,
कृष्ण लीला में जो दन्तवक्त्र और शिशुपाल नामक असुर हुए–
वे ही अब गौर लीला में राक्षस-वृत्ति को धारण करके ‘जागाइ’ एवं ‘माधाइ’ के नाम से ब्राह्मण-कुल में प्रकट हुए हैं|
पुराण कहते हैं– कलिंमाश्रित्य जायते राक्षसा: ब्रह्मयोनिषु–
कलियुग में राक्षस अधिकतर ब्राह्मणों के ही कुल में जन्म
लेते हैं|
ऐसा कोई पाप नहीं था जो इन्होने नहीं किया था|
यह इतने अत्याचारी थे की जिस मार्ग में यह दिखाई दे जाते–
लोग इन के आतंक के कारण उस मार्ग से ही आना-जाना छोड़ देते
थे|
नित्यानंद प्रभु ने सोचा की यदि यह दोनों कृष्ण-भक्त हो
जाएँ तो गौर-महाप्रभु की महिमा सब लोग जान जायेंगे– इसीलिए उन्होंने इनके पास जा कर गौर-कृष्ण-नाम का आश्रय
लेने का अनुरोध किया– किन्तु ‘जागाइ’ ने इतना सुनते ही नित्यानंद प्रभु की सिर पर मटका उठा कर
फ़ेंक दिया| जब गौरांग महाप्रभु ने यह वृत्तान्त सुना तो उन्होंने इन
दोनों को सजा देने के लिए अपने सुदर्शन चक्र को प्रकट किया|
किन्तु नित्यानंद प्रभु ऐसे महाकृपालु हैं की उन्होंने
महाप्रभु के कोप से तो उन दोनों की रक्षा की ही, साथ ही साथ अति-दुर्लभ कृष्ण प्रेम भी प्रदान किया|
बाद में यह दोनों ऐसे महावैष्णव हुए की सब लोग इनके दर्शन
करके अपने आपको धन्य मानते थे|
नित्यानंद प्रभु ने जागाइ एवं माधाइ का उद्धार यही सोच कर
किया था की इससे सभी लोगों के सामने गौरांग महाप्रभु का प्रताप प्रकट हो जायेगा|
गौरयश का प्रचार ही नित्यानंद प्रभु का प्राणधन है–
ए दुइयेरे प्रभु यदि अनुग्रह करे|
तबे से प्रभाव देखे सकल संसारे||–
चैतन्य भागवत २/१३/६८ अर्थात– इन दोनों महापातकियों का उद्धार यदि गौरांग कर दें,
तभी सारा संसार उनकी महिमा से अवगत होगा|
यही बात को जान कर के लेखक ने कहा है–
मो सो तरै गौर जसु गावैगो जहान है–
यदि मेरे जैसा व्यक्ति आपके हाथों से तर जाए तो यह संसार
गौरांग महिमा से अवश्य अवगत होगा|